अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
ऋषिः - नारायणः
देवता - साक्षात्परब्रह्मप्रकाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
8
अ॒ष्टाच॑क्रा॒ नव॑द्वारा दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या। तस्यां॑ हिर॒ण्ययः॒ कोशः॑ स्व॒र्गो ज्योति॒षावृ॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्टाऽच॑क्रा । नव॑ऽद्वारा । दे॒वाना॑म् । पू: । अ॒यो॒ध्या । तस्या॑म् । हि॒र॒ण्यय॑: । कोश॑: । स्व॒:ऽग: । ज्योति॑षा । आऽवृ॑त: ॥२.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टाऽचक्रा । नवऽद्वारा । देवानाम् । पू: । अयोध्या । तस्याम् । हिरण्यय: । कोश: । स्व:ऽग: । ज्योतिषा । आऽवृत: ॥२.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(अष्टाचक्रा) [योग के अङ्ग अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि, इन] आठों का कर्म [वा चक्र] रखनेवाली, (नवदारा) [सात मस्तक के छिद्र और मन और बुद्धिरूप] नवद्वारवाली (पूः) पूर्ति [पुरी देह] (देवानाम्) उन्मत्तों के लिये (अयोध्या) अजेय है। (तस्याम्) उस [पूर्ति] में (हिरण्ययः) अनेक बलों से युक्त (कोशः) कोश [भण्डार अर्थात् चेतन जीवात्मा] (स्वर्गः) सुख [सुखस्वरूप परमात्मा] की ओर चलनेवाला (ज्योतिषा) ज्योति [प्रकाशस्वरूप ब्रह्म] से (आवृताः) छाया हुआ है ॥३१॥
भावार्थ
शरीर की गति को अज्ञानी दुर्बलेन्द्रिय लोग नहीं समझते। शरीर के भीतर चेतन जीवात्मा है ॥३१॥
टिप्पणी
३१−(अष्टाचक्रा) करोतेर्घञर्थे-क, द्वित्वम्। चक्रं कर्म रथाङ्गं वा। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा-ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि−योगदर्शने। २।२९। इत्यष्टावङ्गानि कर्माणि यस्याः सा (नवद्वारा) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैर्युक्ता (देवानाम्) दिवु मदे-अच्। उन्मत्तानां मूर्खाणाम् (पूः) म० २८। पूर्तिपुरी (अयोध्या) अजेया। (तस्याम्) पुरि (हिरण्ययः) ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्यानि च्छन्दसि। पा० ६।४।१७५। मयटो मलोपः। हिरण्यमयः। हिरण्यानि रेतांसि बलानि यस्मिन् सः (कोशः) कुश श्लेषे-घञ्। भाण्डागारः (स्वर्गः) स्वः सुखं गच्छति प्राप्नोतीति यः (ज्योतिषा) प्रकाशस्वरूपेण परमात्मना (आवृतः) आच्छादितः ॥
विषय
अष्टचक्र नवद्वारा अयोध्या
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
आज मैं अष्ट चक्रों की कुछ चर्चा प्रकट करने आया। हमारे यहाँ परम्परा से ही मनस्तत्व की भी भिन्न गतियां रहती हैं। सबसे प्रथम मानव जब इस मार्ग को अपनाना चाहता है कि आज मैं अष्ट चक्र नौ द्वारों वाली अयोध्यापुरी में अपना वास चाहता हूँ। तो वह कैसी प्रिय अयोध्यापुरी है? जिसमें नौ द्वार और अष्ट चक्र हैं। तो मानव यह जानता रहता है कि यह आठ चक्र क्या हैं? और इसी प्रकार इसके संदर्भ में मैं तुम्हें यह वर्णन कराना चाहता हूँ कि हमारे बीच चार प्रकार की बुद्धियां होती हैं सबसे प्रथम (१) बुद्धि (२) मेघा (३) ऋतम्भरा और (४) प्रज्ञा। ये चार प्रकार की धाराएं हमारे मस्तिष्कों में इन आभाओं में रहती हैं। जो मानव योग को जानना चाहता है, आभा में रमण करना चाहता है। सबसे प्रथम बुद्धि जो साधारणत्व मानी गई है और द्वितीय बुद्धि का नाम मेधावी है। मेधा उसे कहते हैं जो मानव लोकों की यात्रा करता है, वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा और राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए वह शान्त मुद्रा में विद्यमान रहता है।
परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में इस मानव शरीर का निर्माण किया और इस मानव शरीर के निर्माण में अष्ट चक्र और नौ द्वारों वाली पुरी को रचा। मैंने अयोध्या की विवेचना करते हुए कहा था, वास्तव में अयोध्या तो हमारा मानवीय शरीर पुरी कहलाई जाती है हमारे यहाँ उस पुरी को दृष्टिपात करते हुए अयोध्या का निर्माण भगवान मनु ने किया था भगवान मनु ने मानवीय शरीर मानवीय अयोध्या को दृष्टिपात करते हुए इस मानव एक नगर का निर्माण किया था एक नगरी का निर्माण किया जिसका नाम अयोध्या कहलाया गया जिस अयोध्या में नौ द्वार कहलाये जाते थे आठ प्रकार के चक्र कहलाये जाते थे परन्तु उसी के आधार पर उन्होंने अयोध्या पुरी का निर्माण किया जिस अयोध्या पुरी में उन्होंने राष्ट्र का निर्माण किया
हमारे शरीर में नौ द्वार है वे ही गन्धर्व हैं मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक गंगा, यमुना, सरस्वती ये तीन नदियां बह रही है जिने तुम आकाश गंगा, मुत्यु लोक की गंगा, पाताल गंगा कह सकते हो तीनों गंगाएं हमारे इस स्वर्गीय शरीर में है गंगा ही नौ द्वारों मे रमण कर रही हैं इनको स्वच्छ करती रहती हैं गंगा नाम आत्मा का है जो इन नौ द्वारों वाले शरीर को पवित्र कर रहा हैं यदि यह आत्मा इस नौ द्वारों वाले शरीर में न होता तो इन नौ द्वारों का कुछ भी न बन सकता था इसी के द्वार शरीर पवित्र होता हैं।
जैसे लौकिक गंगा में स्नान करके स्वच्छ हो जाते हैं अपने शरीरों को पवित्र कर देते हैं उसी प्रकार से ब्रह्मा की पुत्री रूपी गंगा के द्वारा यह नौ द्वारों का शरीर पवित्र होता रहता है परमात्मा का तथा आत्मा का सम्बन्ध पिता पुत्र का हैं
इस मानव शरीर में तीन नाड़िये हैं इडा, पिंगला, सुषुम्ना या गंगा, यमुना, सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हैं जब मानव योगाभ्यासी बन कर मूलाधार में ध्यान करके रमण करत है तब उसको मृत्यु लोक गंगा का ज्ञान होता हे इसके पश्चात जब आत्मा नाभिचक्र में और हृदय चक्र में ध्यानावस्था में पंहुचता हैं तब उसे आकाश गंगा का ज्ञान होता हे जब योगाभ्यासी आत्मा समाधि अवस्था में घ्राणेन्द्रिय चक्र में ध्यान लगाता हैं तब वह त्रिवेणी में पंहुच जाता हैं या त्रिवेणी का साक्षात्कार करता है इससे आगे चलकर आत्मा जब ब्रह्मरन्ध्र में पंहुच जाता हें तब उस योगी को ब्रह्मलोक की गंगा का ज्ञान होता हैं।
परन्तु मानव ने इस रूप रेखा को ठीक प्रकार से जाना तो है नही इसीलिए मानव स्थूल अर्थों को कल्पना द्वारा स्थापित करके भटक रहा हैं भौतिक नदी गंगा को ही आज का मानव मुक्ति का स्थान अपनी अज्ञानता से समझ बैठा हैं इस गंगा से तो केवल भौतिक शरीर की स्वच्छ किया जा सकता हैं या प्यासे को उसके स्वच्छ जल से सन्तुष्ट किया जा सकता हैं
मानव का अन्तःकरण तो ज्ञान पूर्वक कर्तव्य कर्म करने से ही पवित्र होगा। नौ द्वार कौन से कहलाते है? दो चक्षु, दो घ्राण, दो श्रोत्र और एक मुखारविन्द, उपस्थ और गुदा इन्द्रिय यह नौ द्वार हैं परन्तु दसवां द्वार योगी का होता है जिसको ब्रह्मरन्घ्र कहते हैं। मेरे पुत्रों! देखो, मेरे पुत्रों! देखो, वह अष्ट चक्रों में गति करता हुआ वह आत्म तत्त्व में प्रवेश करता हुआ जब ब्रह्मरन्ध्र में ब्रह्माण्ड का दिग्दर्शन करने वाला मानो देखो, वह ब्रह्मचारी वह एक महान तन्मय देवतव को प्राप्त होता है वह देवताओं की सभा में वह सुशोभनीय हो जाता है तो यह देवी! वीरतव कहलाता है वीतरतव का अभिप्रायः यह है क्या यह परमाणुवाद की रक्षा करना है।
विषय
देवानाम् पू:
पदार्थ
१. यह शरीररूप (पू:) = नगरी (देवानाम्) = सब सूर्यादि देवों की अधिष्ठानभूत है, ('सर्वा हास्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते') = [सूर्यः चक्षुर्भूत्वा० अग्निर्वाग्भूत्वा०, वायुः प्राणो भूत्वा०, चन्द्रमा मनो भूत्वा०]। (अष्टाचक्रा) = इसमें 'मूलाधार' से लेकर 'सहस्रार' तक आठ चक्र-'मूलाधार' [मेरुदण्ड के मूल में], इसके ऊपर 'स्वाधिष्ठान', 'मणिपूरक' [नाभि में], 'अनाहत' [हृदय में] 'विशुद्धि' [कण्ठ में], 'ललना' [जिह्वा मूल में] 'आज्ञाचक्र' [भ्रूमध्य में] 'सहस्त्रारचक्र' [मस्तिष्क में] हैं। (नवद्वारा) = नौ इन्द्रिय-द्वारोंवाली यह नगरी (अयोध्या) = शत्रुओं से युद्ध में न जीतने योग्य है। सूर्य का सन्ताप इस नगरी के एक-एक छिद्र से बाहर आये हुए पसीने के रूप में जलकण को वाष्पीभूत कर सकता है, परन्तु नगरी के अन्दर उपद्रव पैदा नहीं कर पाता। २. (तस्याम्) = उस नगरी में एक (हिरण्ययः) = हितरमणीय (कोश:) = कोश है, जिसे 'मनोमय कोश कहते हैं। यह (स्वर्ग:) = आनन्दमय है, (ज्योतिषा आवृत:) = ज्योति से आवृत है। हम इसे राग-द्वेष आदि से मलिन न कर दें, तो यह चमकीला-ही-चमकीला है-यहाँ आहाद-ही-आहाद है, यह प्रभु की ज्योति से ज्योतिर्मय है।
भावार्थ
आठ चक्रोंवाली, नौ इन्द्रियाँ-द्वारोंवाली इस शरीररूप अयोध्या नामक देवनगरी में एक ज्योतिर्मय मनोमयकोश है, जो आहाद व प्रकाश से परिपूर्ण है। इसे हम राग-द्वेष से मलिन न करें।
भाषार्थ
(अष्टाचक्रा) आठ चक्रों वाली, (नवद्वारा) नौ द्वारों वाली, (देवानाम्, पू) इन्द्रिय-देवों की पुरी (अयोध्या) अयोध्या है। (तस्याम्) उस पुरी में (हिरण्ययः) सुवर्ण सदृश चमकीला (कोशः) कोश है, (स्वर्गः) जिसे कि स्वर्ग कहते हैं, (ज्योतिषा आवृतः) जो कि ब्राह्मीज्योति द्वारा घिरा हुआ है।
टिप्पणी
[अष्टाचक्रा= सुषुम्णा नाडी और मस्तिष्क में आठ चक्र हैं, यथा “मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र, अनाहतचत्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञाचक, सहस्रारचक्र। आठवां चक्र सम्भवतः ब्रह्मरन्ध्र है, जोकि आज्ञा-चक्र और सहस्रारचक्र के मध्यवर्ती हैं। अथवा आठवां चक्र सम्भवतः "कुण्डलिनी” है। इन का विस्तृत विवरण "पातञ्जल योग प्रदीप" (आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर) में द्रष्टव्य है। नवद्वारा = दो आंखों के छिद्र, दो नासिकारन्ध्र, दो कर्णछिद्र, १. लिंग का, और १ गुदा का छिद्र-ये ९ द्वार हैं। अयोध्या= परमेश्वर प्रदर्शित मार्गों पर चलने से रोग, तथा काम क्रोध आदि शत्रुऔं द्वारा शरीर पुरी पराजित नहीं होती, और न रोग आदि इस पुरी के साथ युद्ध करने की शक्ति ही रखते हैं। हृदय को हिरण्यय कोश कहा है जोकि ब्राह्मीज्योति द्वारा आवृत है, यह हृदय स्वर्ग है, जहां कि ब्रह्म के सन्निधान द्वारा सुख-विशेष को प्राप्ति होती है]।
विषय
अयोध्या
शब्दार्थ
यह मानव-शरीर (अष्टचक्रा:) आठ चक्र और (नवद्वारा) नौ द्वारों से युक्त (देवानाम्) देवों की (अयोध्या कभी पराजित न होनेवाली (पूः) नगरी है (तस्याम् ) इसी पुरी में (ज्योतिषा) ज्योति से (आवृतः) ढका हुआ, परिपूर्ण (हिरण्ययः) हिरण्यमय, स्वर्णमय (कोश:) कोश है यह (स्वर्ग:) स्वर्ग है,आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा इसी में निहित है ।
भावार्थ
मन्त्र में मानव-देह का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है । हमारा शरीर आठ चक्रों से युक्त है । वे अष्टचक्र हैं १. मूलाधार चक्र – यह गुदामूल में है । २. स्वधिष्ठान चक्र - मूलाधार से कुछ ऊपर है । ३. मणिपूरक चक्र – इसका स्थान नाभि है । ४. अनाहत चक्र - हृदय स्थान में है । ५. विशुद्धि चक्र – इसका स्थान कण्ठमूल है । ६. ललना चक्र – जिह्वामूल में है । ७. आज्ञा चक्र – यह दोनों भ्रुवों के मध्य में है । ८. सहस्रार चक्र - मस्तिष्क में है । नौ द्वार ये हैं - दो आँख, दो नासिका-छिद्र, दो कान, एक मुख, दो मल और मंत्र के द्वार । इस नगरी में जो हिरण्यमयकोष = हृदय है वहाँ ज्योति से परिपूर्ण आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा विराजमान है। योगी लोग योग-साधना के द्वारा इन चक्रों का भेदन करते हुए उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन करते हैं ।
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
The human body is an invincible city of the gods, God Supreme and the divinities of nature. It has eight chakras: Muladhara, Svadhishthana, Manipur, Anahat, Vishuddhi, Lalana, Ajna and Sahasrara. It has nine gates: two eyes, two ears, two nostrils, mouth and the organs of excretion. In the city, there is a golden cave, replete with the golden light of Divinity, which is the paradisal path to heaven. This City is Ayodhya, the Invincible.
Translation
With eight circles and nine gates or portals impregnable to the castle of the enlightened ones. Therein lies the golden chest, conductor to the world of bliss-encompassed by brilliant light. (asta-cakra- eight basic building materials of body) see Taitt. Aranyaka (1.27, 2-3) . (tvak = skin; asrak = blood; mānsā = flesh; meda = fat; asthi = bone; majjā = marrow; sukra = semen and oja = glow, (Nine portals = seven in head = 2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, 1 mouth opening and 2 below for urine and feces). (Nava dvārā).
Translation
There is impregnable fort of the luminous faculties which is surrounded by eight circles and which has nine portals. Therein is laid a golden treasure-chest which is full of bliss begirt with light.
Translation
This citadel of the body, unconquerable by the ignorant, equipped with circles eight and portals nine, contains the soul full of myriad powers, ever marching on to Joyful God, surrounded by the Refulgent Supreme Being.
Footnote
Eight circles: Eight parts of yoga. Yama, Niyama, Asana, Pranayama, Pratyahara, Dharna, Dhyana, Smadhi. Nine portals: The orifices of the human body. Two eyes, two ears, two nostrils, mouth, anus and penis.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(अष्टाचक्रा) करोतेर्घञर्थे-क, द्वित्वम्। चक्रं कर्म रथाङ्गं वा। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा-ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि−योगदर्शने। २।२९। इत्यष्टावङ्गानि कर्माणि यस्याः सा (नवद्वारा) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैर्युक्ता (देवानाम्) दिवु मदे-अच्। उन्मत्तानां मूर्खाणाम् (पूः) म० २८। पूर्तिपुरी (अयोध्या) अजेया। (तस्याम्) पुरि (हिरण्ययः) ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्यानि च्छन्दसि। पा० ६।४।१७५। मयटो मलोपः। हिरण्यमयः। हिरण्यानि रेतांसि बलानि यस्मिन् सः (कोशः) कुश श्लेषे-घञ्। भाण्डागारः (स्वर्गः) स्वः सुखं गच्छति प्राप्नोतीति यः (ज्योतिषा) प्रकाशस्वरूपेण परमात्मना (आवृतः) आच्छादितः ॥
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