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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 33
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    3

    प्र॒भ्राज॑मानां॒ हरि॑णीं॒ यश॑सा सं॒परी॑वृताम्। पुरं॑ हिर॒ण्ययीं॒ ब्रह्मा वि॑वे॒शाप॑राजिताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽभ्राज॑मानाम् । हरि॑णीम् । यश॑सा । स॒म्ऽपरि॑वृताम् । पुर॑म् । ह‍ि॒र॒ण्ययी॑म् । ब्रह्म॑ । आ । वि॒वे॒श॒ । अप॑राऽजिताम् ॥२.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्। पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽभ्राजमानाम् । हरिणीम् । यशसा । सम्ऽपरिवृताम् । पुरम् । ह‍िरण्ययीम् । ब्रह्म । आ । विवेश । अपराऽजिताम् ॥२.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 33
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] ने (भ्राजमानाम्) बड़ी प्रकाशमान (हरिणीम्) दुःख हरनेवाली (यशसा) यश से (संपरीवृताम्) सर्वथा छायी हुई, (हिरण्ययीम्) अनेक बलोंवाली, (अपराजिताम्) कभी न जीती गई (पुरम्) पूर्ति में (आ) सब ओर से (विवेश) प्रवेश किया है ॥३३॥

    भावार्थ

    विज्ञानी पुरुष सर्वथा अक्षय परिपूर्ण परमात्मा की उपासना से सदा आनन्द में मग्न रहते हैं ॥३३॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३३−(प्रभ्राजमानाम्) प्रदीप्यमानाम् (हरिणीम्) हृञ्-इनन्, ङीप्। दुःखहरणशीलाम् (यशसा) कीर्त्या (संपरीवृताम्) समन्तादाच्छादिताम् (पुरम्) म० २८। पूर्तिम् (हिरण्ययीम्) म० ३१। हिरण्यय-ङीप्। बलैर्युक्ताम् (ब्रह्म) परमेश्वरः (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान् (अपराजिताम्) अपराभूताम् ॥

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    विषय

    प्रभाजमाना-अपराजिता

    पदार्थ

    १. जिस समय हम इस शरीर-नगरी को पूरी तरह से स्वस्थ रखने का प्रयत्न करते हैं तब यह अन्नमयकोश में (प्राभ्राजमानाम्) = तेजस्विता से दीप्त होती है [भ्राज़ दीसौ]। यह प्राणमयकोश में प्राणशक्तिपूर्ण होने से हरिणीम् सब दुःखों को हरण करनेवाली होती है। इसमें रोगों का प्रवेश नहीं होता। मनोमयकोश में यह (यशसा संपरीवृतानाम्) = सब यशस्वी-प्रशस्त भावनाओं से पूर्ण होती है। विज्ञानमयकोश में यह (हिरण्ययीम्) = हितरमणीय ज्ञानज्योति से परिपूर्ण होती है और आनन्दमयकोश में (अपराजिताम्) = किन्हीं भी अशुभ आसुर भावनाओं से पराजित नहीं होती। यह कोश 'सहस' वाला है-शत्रुकषर्ण शक्तिवाला है, अतएव आनन्दमय है। इस नगरी में (ब्रह्म आविवेश) = प्रभु का प्रवेश होता है, अर्थात् यहाँ प्रभु का दर्शन होता है।

    भावार्थ

    हम इस शरीर-नगरी को 'प्रभ्राजमाना, हरिणी, यश:संपरीवृता, हिरण्ययी व अपराजिता' बनाएँ। इसमें हमें प्रभु का दर्शन होगा। गतमन्त्र के अनुसार इस शरीर नगरी को 'प्रभ्राजमाना' बनाने की कामनावाला व्यक्ति 'अथर्वा' [अथ अर्वा] आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाला बनता है। आत्मनिरीक्षण करता हुआ यह शरीर में वीर्य-रक्षण का पूर्ण प्रयत्न करता है। यह वीर्य उसके लिए 'वरणमणि' बनती है सब रोग व मलिनताओं का निवारण करनेवाली। यह कहता है कि -

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    भाषार्थ

    (प्रभ्राजमानाम्) प्रदीप्यमान, (हरिणीम्) मनोहारिणी१ या क्लेश२ हारिणी, (यशसा) यशस्वी ब्रह्म द्वारा (संपरीवृताम्) सम्यक् प्रकार से सब ओर आवृत अर्थात् घिरी हुई (मन्त्र ३१), (हिरण्ययीम्) सुवर्ण सदृश चमकीली, (अपराजिताम्) रोग, काम-क्रोधादि द्वारा अजेया (पुरम्) पुरी में, (ब्रह्म) ब्रह्म (आ विवेश) प्रविष्ट हो गया है।

    टिप्पणी

    [१. हिरण्ययी होने से मनोहारिणी। २. इस में ब्रह्म के दर्शन हो जाने पर क्लेश हारिणी ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    That golden city, Invincible Ayodhya, refulgent redeemer wrapped in glory, unconquered and unassailable by any foreigner, Brahma Supreme has entered, and there abides for those who know and can see. Note: The golden heart cave of the last three mantras of this sukta is a micro-version of the macro- cosmic Trinity of Brahma, Jiva and Prakrti, which can be realised by men of knowledge and vision. This treasure-hold of Trinity is dynamic as a wheel, with three spokes, and firm as a dome on three pillars. The three spokes of the wheel are Satva, Rajas and Tamas modes of Prakrti, and the three pillars of the Dome are Prakrti, Jiva and Brahma. In this context reference may also made to Shvetashvataropanishad, 1, 3-7, and 4, 5-7. With reference to the mysterious Yaksha of mantra 32, refer to Kenopanishad part 3 and 4, 1-3.

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    Translation

    The Lord supreme enters the golden castle, which blazes brilliantly, removes all weariness, is surrounded with glory and is ever unconquered. (āparajitam and thus ayodhyā, sec - ayodhya, impregnable castle; see Av. X.2.11)

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    Translation

    The Supreme Spirit has passed within the fort which is golden, unassailable and which is bright with excessive brilliancy and compassed with glory on all sides.

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    Translation

    God resides in the soul, bright with exceeding brilliancy, beautiful, compassed with glory round about, multi-powered ne” er subdued.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३३−(प्रभ्राजमानाम्) प्रदीप्यमानाम् (हरिणीम्) हृञ्-इनन्, ङीप्। दुःखहरणशीलाम् (यशसा) कीर्त्या (संपरीवृताम्) समन्तादाच्छादिताम् (पुरम्) म० २८। पूर्तिम् (हिरण्ययीम्) म० ३१। हिरण्यय-ङीप्। बलैर्युक्ताम् (ब्रह्म) परमेश्वरः (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान् (अपराजिताम्) अपराभूताम् ॥

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