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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    4

    नाष्ट॒मो न न॑व॒मो द॑श॒मो नाप्यु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । अ॒ष्ट॒म: । न । न॒व॒म: । द॒श॒म: । न । अपि॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । अष्टम: । न । नवम: । दशम: । न । अपि । उच्यते ॥५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
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    हिन्दी (5)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    वह (न)(अष्टमः) आठवाँ, (न)(नवमः) नवाँ, (न)(दशमः) दसवाँ (अपि) ही (उच्यते) कहा जाता है ॥१८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर एक है, उससे भिन्न कोई भी दूसरा, तीसरा आदि ईश्वर नहीं है, सब लोग उसी की उपासना करें। इन मन्त्रों में दो से लेकर दस तक दूसरे ईश्वर होने का निषेध इसलिये किया है कि सब संख्या का मूल एक [१] अङ्क है, इसी एक को दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ और नौ बार गणने से २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, और ९ अङ्क बनते हैं, और एक पर शून्य देने से १० दस का अङ्क बनता है। उसे वेद ने एक ईश्वर का निश्चय कराके दूसरे ईश्वर होने का सर्वथा निषेध किया है, अर्थात् उसके एकपने में भी भेद नहीं और वह शून्य भी नहीं, किन्तु वह सच्चिदानन्दगुणयुक्त एकरस परमात्मा है ॥१६-१८॥१−यह मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ब्रह्मविद्याविषय पृ० ९०, ९१ में व्याख्यात हैं, और उन्हीं के भेद से यहाँ अर्थ किया गया है ॥२−मन्त्र १६ से लेकर २२ तक मन्त्रों के पीछे आवृत्ति का चिह्न गवर्नमेन्ट बुक डिपो बम्बई और वैदिक यन्त्रालय अजमेर के पुस्तकों में दिया है, अर्थात् मन्त्र १५ की आवृत्ति मानी है। परन्तु यह चिह्न प० सेवकलालवाले पुस्तक में नहीं है और न कुछ इस के विषय में ग्रिफ़्फ़िथ साहिब और ह्विटनी साहिब के अनुवाद में है और न महर्षि दयानन्दकृत उक्त पुस्तक में आवृत्ति का चिह्न है ॥

    टिप्पणी

    १६-१८−(न) निषेधे (अपि) एव (उच्यते) कथ्यते। अन्यत् सुगमम् ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( न द्वितीयः ) = न दूसरा  ( न तृतीयः ) = न तीसरा  ( न चतुर्थ: ) = न चौथा  ( अपि ) = ही  ( उच्यते ) = कहा जाता है ।  ( न पञ्चमः ) = न पाँचवां   ( न षष्ठः ) = न छठा  ( न सप्तमः ) = न सातवां  ( अपि ) = ही  ( उच्यते ) = कहा जाता है ।  ( न अष्टम: ) = न आठवॉ  ( न नवमः ) = न नवां   ( न दशम: ) = न दसवाँ  ( अपि उच्यते ) = ही कहा जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा एक है । उस से भिन्न कोई भी दूसरा, तीसरा, चौथा, आदि नहीं है। उस एक की ही उपासना करनी चाहिए। वही परमात्मा सच्चिदानन्द, सर्वव्यापक, एक रस है। उसकी उपासना करने से ही मुक्तिधाम को पुरुष प्राप्त हो सकता है ।

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    विषय

    अद्वितीय प्रभु

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (एतं देवम्) = इस प्रकाशमय प्रभु को (एकवृतं वेद) = एकत्वेन वर्तमान जानता है व जानता है कि वह प्रभु (न द्वितीयः) = न दूसरा, (न तृतीयः) = न तीसरा और (न चतुर्थः अपि) = न चौथा भी (उच्यते) = कहा जाता है। (न पञ्चमः) = न पाँचवों, (न षष्ठः) = न छठा, (न सप्तमः) = न सातवाँ भी (उच्यते) = कहा जाता है। (न अष्टमः) = न आठवाँ, (न नवमः) = न नौवा, (न दशमः अपि) = और न ही दसवाँ (उच्यते) = कहा जाता है। प्रभु एक हैं और एक ही हैं।

    भावार्थ

    उस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् प्रभु की सत्ता अद्वितीय है। दो की आवश्यकता होते ही प्रभु की सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता विहत हो जाती है।

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    भाषार्थ

    न आठवां, न नौवां और न भी दसवां यह परमेश्वर कहा जाता है। (य एतम्) देखो मन्त्र (२)

    टिप्पणी

    [अभिप्राय ३-५ का यह है कि परमेश्वर को जो एक मात्र देव जानता है, उस के लिये परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई उपास्य नहीं। मौलिक संख्याएं १-१० तक हैं, पश्चात् की संख्याएं इन्हीं की पुनरावृत्ति रूप हैं। अतः दस तक वर्णन हुआ है]।

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    विषय

    अद्वितीय परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    वह परमेश्वर (न द्वितीयः) न दूसरा है, (न तृतीयः) न तीसरा, (चतुर्थः न अपि उच्यते) और चौथा भी नहीं कहा जाता। (न पञ्चमः) न पांचवां है (न षष्ठः) न छठा, (न सप्तमः) सातवां भी नहीं (उच्यते) कहा जाता। (न अष्टमः) न आठवां है, (न नवमः) न नवां और (दशम अपि न उच्यते) दशवां भी नहीं कहा जाता। प्रत्युत वह सब से ‘प्रथम’ सर्वश्रेष्ठ सब से अद्वितीय और सब से मुख्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १४ भुरिक् साम्नी त्रिष्टुप्, १५ आसुरी पंक्तिः, १६, १९ प्राजापत्याऽनुष्टुप, १७, १८ आसुरी गायत्री। अष्टर्चं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Savita, Aditya, Rohita, the Spirit

    Meaning

    Nor eighth, nor nineth, nor even tenth is He ever said to be. He that knows Savita as such, as One and only One, really knows.

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    Translation

    Not eighth, nor ninth, also not tenth is said to be, who realizes this Lord as the only acceptable one.

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    Translation

    He is neither called eighth nor ninth and yet not tenth. who…one.

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    Translation

    He is called neither eighth, nor ninth, nor yet tenth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६-१८−(न) निषेधे (अपि) एव (उच्यते) कथ्यते। अन्यत् सुगमम् ॥

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