अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
1
सर्वे॑ अस्मिन्दे॒वा ए॑क॒वृतो॑ भवन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑ । अ॒स्मि॒न् । दे॒वा: । ए॒क॒ऽवृत॑: । भ॒व॒न्ति॒ ॥५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे अस्मिन्देवा एकवृतो भवन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वे । अस्मिन् । देवा: । एकऽवृत: । भवन्ति ॥५.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मिन्) इस [परमात्मा] में (सर्वे) सब (देवाः) चलनेवाले [पृथिवी आदि लोक] (एकवृतः) एक [परमात्मा] में वर्त्तमान (भवन्ति) रहते हैं ॥२१॥
भावार्थ
ऊपर मन्त्र १२ और १३ देखो और वही भावार्थ समझो ॥२०, २१॥यह दोनों मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ब्रह्मविद्याविषय पृ० ९०, ९१ में व्याख्यात हैं ॥
टिप्पणी
२१−(सर्वे) समस्ताः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३ ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( सः ) = वह परमेश्वर ( सर्वस्मै ) = सब संसार को ( विपश्यति ) = विविध प्रकार से देखता है । ( यत् प्राणति ) = जो श्वास लेता है ( यत् च न ) = और जो सांस नहीं लेता ( तम् इदम् ) = उस परमात्मा को यह सब ( सहः ) = सामर्थ्य ( निगतम् ) = निश्चय करके प्राप्त है। ( स एषः ) = वह आप ( एकः ) = एक ( एकवृत् ) = अकेला वर्त्तमान ( एक एव ) = एक ही है । ( अस्मिन् ) = इस परमेश्वर में ( सर्वे देवा: ) = पृथिवी आदि सब लोक ( एकवृतः भवन्ति ) = एक परमात्मा में वर्त्तमान रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = परमात्मा प्राणी-अप्राणी सबको देख रहे हैं। वह परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सब लोकों का आधार हो कर सदा एक रस, एक रूप वर्त्तमान है । वेद ने कैसे सुन्दर स्पष्ट शब्दों में बार-बार परमेश्वर की एकता का निरूपण किया है ।
विषय
सर्वाधार प्रभु
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (यत् च प्राणति यत् च न) = जो प्राणधारण करता है और प्राणधारण नहीं करता (सर्वस्मै) = उस सबके लिए, अर्थात् सब चराचर व जंगम-स्थावर का (विपश्यति) = विशेषरूप से ध्यान करते हैं। २. (तम्) = उस प्रभु को (इदं स:) = यह शत्रुमर्षक बल (निगतम्) = निश्चय से प्राप्त है। (सः एषः) = वे ये प्रभु (एकः) = एक है (एकवृत्) = एकत्वेन वर्तमान हैं, (एकः एव) = एक ही हैं (सर्वे देवा:) = सूर्यादि सब देव (अस्मिन्) = इस प्रभु में (एकवृतः भवन्ति) = एक आधार में वर्तमान होते हैं। इन सबका आधार वह अद्वितीय प्रभु ही है।
भावार्थ
प्रभु सब चराचर का ध्यान करते हैं, सम्पूर्ण शत्रुमर्षक बल को प्राप्त हैं। वे प्रभु एक हैं, एक ही हैं। वे ही सब देवों के एक आधार हैं।
भाषार्थ
(सर्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थ, (अस्मिन्) इस सविता में (एकवृतः) अर्थात् इस एक में वर्तमान (भवन्ति) होते हैं। (य एतम्) देखो मन्त्र (२)।
विषय
अद्वितीय परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(यत् च प्राणति) जो वस्तु प्राण लेता है और (यत् च न) जो प्राण नहीं भी लेता (सर्वस्मै) उस सब चराचर पदार्थ को (सः विपश्यति) वह विशेषरूप से देखता है। (तम् इदं नि-गतम्) उसमें यह समस्त जगत् आश्रित है। (सः सहः) वह परमात्मा शक्तिस्वरूप सबका संचालक प्रवर्तक है। (एषः एकः) वह एक ही है। (एकवृद्) वह एकरस, अखण्ड चेतनस्वरूप है। और वह (एकः एव) एक ही अद्वितीय हैं। (सर्वे अस्मिन् देवाः एकवृतो भवन्ति) उस सर्व शक्तिमान् परमात्मा में समस्त वस्तु यदि लोक (एकवृतः) एकमात्र आश्रय में विद्यमान, उसी में लीन होकर रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१४ भुरिक् साम्नी त्रिष्टुप्, १५ आसुरी पंक्तिः, १६, १९ प्राजापत्याऽनुष्टुप, १७, १८ आसुरी गायत्री। अष्टर्चं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Savita, Aditya, Rohita, the Spirit
Meaning
All divinities of existence concentre into Him, one with and one into that. He that knows this Savita as One all-concentred Being really knows.
Translation
Into him, all the enlightened ones become acceptors of one alone, whoever realizes this Lord as the only acceptable one. (See also Av. XII.4.13. vari.)
Translation
All these men of enlightenment become united in Him (in the state of salvation). who ….one.
Translation
These luminous planets and learned persons reside and take shelter in this One God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(सर्वे) समस्ताः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३ ॥
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