अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
1
तं व॒त्सा उप॑ तिष्ठ॒न्त्येक॒शीर्षा॑णो यु॒ता दश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒त्सा: । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । एक॑ऽशीर्षाण: । यु॒ता: । दश॑ ॥४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वत्सा उप तिष्ठन्त्येकशीर्षाणो युता दश ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वत्सा: । उप । तिष्ठन्ति । एकऽशीर्षाण: । युता: । दश ॥४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(तम्) उस [परमात्मा] को (एकशीर्षाणः) एक [परमात्मा] को शिर [प्रधान] माननेवाले (दश) दस [चार दिशाओं, चार मध्य दिशाओं और ऊपर-नीचे की दिशाओं से सम्बन्धवाले] (युताः) मिले हुए (वत्साः) निवास स्थान [सब लोक] (उप तिष्ठन्ति) सेवते हैं ॥६॥
भावार्थ
जो परमात्मा सूर्य आदि सब लोकों को धारण-आकर्षण द्वारा अपनी आज्ञा में रखता है, उसकी भक्ति सब मनुष्य करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(तम्) परमात्मानम् (वत्साः) वस निवासे-स प्रत्ययः। निवासस्थानाः सर्वलोकाः (उपतिष्ठन्ति) सेवन्ते (एकशीर्षाणः) एकः परमेश्वरः शिरः प्रधानो येषां ते (युताः) संयुक्ताः (दश) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादिचतसृभिः, ईशानादिचतसृभिर्दिग्भिः सम्बद्धाः ॥
विषय
दश वत्सा:
पदार्थ
१. (तम्) = उस परमात्मा को (एकशीर्षाण:) = एक आत्मारूप सिरवाले (युता:) = परस्पर मिले हुए-मिलकर कार्य करते हुए (दश वत्सा:) = दस अत्यन्त प्रिय प्राण (उपतिष्ठन्ति) = समीपता से उपस्थित होते हैं। शरीर में प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय', इन दस भागों में विभक्त होकर कार्य करता है। ये शरीर में प्रियतम वस्तु हैं, इनके साथ ही जीवन है। इनकी साधना से इनका अधिष्ठाता 'आत्मा' प्रभु की उपासना करनेवाला बनता है। २. ये प्राण (पश्चात्) = पीछे व (प्राञ्चः) = आगे गतिवाले (आतन्वन्ति) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करते हैं। इस प्राणसाधना को करता हुआ जीव (यत् उदेति) = जब उत्कर्ष को प्राप्त करता है तब (विभासति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है। वस्तुत: यह प्राणसाधक प्रभु की दीति से (दीप्ति) = सम्पन्न बनता है। ३. (एष मारुतः गण:) = यह प्राणों का गण (तस्य) = उस प्रभु का ही है। प्रभु ही जीव के लिए इसे प्राप्त कराते हैं। (स) = वे प्रभु (शिक्याकृतः) = इन प्राणों का आधारभूत छींका बना हुआ (एति) = इस साधक को प्राप्त होता है। वस्तुत: प्रभु की उपासना प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनती है। प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का उपासन कर पाते हैं।
भावार्थ
आत्मा अधिष्ठाता है, दस प्राण उसके वत्स हैं, प्रियतम वस्तु हैं। ये पीछे-आगे शरीर में सर्वत्र शक्ति का विस्तार करते हैं। इन प्राणों का आधार प्रभु हैं। ये प्राण हमें प्रभु प्रासि में सहायक होते हैं।
भाषार्थ
(एक शीर्षाणः) "एक" जिन का शिरोभूत है ऐसे (दश) दस (वत्साः) बच्चे, (युताः)१ परस्पर मिलकर, (तम्) उस पिता का (उपतिष्ठन्ति) उपस्थान करते हैं, पूजन करते। (रश्मिभिः) देखो मन्त्र (२)।
टिप्पणी
[शिरोभूत = मन। मन सहित ५ ज्ञानेन्द्रियां पुत्र रूप हो कर, निज पिता अर्थात् सविता का पूजन करती हैं। इन्हें वत्स अर्थात् पुत्र कहा है। परमेश्वर सब जगत् का पिता होने से मन और १० इन्द्रियों का भी पिता है। इन इन्द्रियों का शिरोभूत है, मन। मन से प्रेरणा पाकर इन्द्रियां विषयों को ग्रहण करती है, तथा निज शक्तियों को परमेश्वरार्पित करती हैं। यथा “यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा। यस्मै देवाः सदा बलिं प्रयच्छन्ति विमितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥" (अथर्व० १०।७।३९), अर्थात् देवलोग जिस स्कम्भ अर्थात् सब को थामने वाले परमेश्वर के प्रति, हाथों, पादों, वाणी, श्रोत तथा चक्षु द्वारा सदा भेंट देते हैं, अर्थात् निज शक्तियों को समर्पित कर उस का पूजन करते हैं। इसी प्रकार मन सहित १० इन्द्रियां निज पितृरूप सविता के प्रति निज व्यवहारों और शक्तियों को भेंट कर उस का उपस्थान करती हैं। सूर्यपक्ष में "एक शीर्षाणः" = जिन १० में से एकशिरोभूत है- ऐसा अर्थ होगा। १० है "बुध, शुक्र, पृथिवी, मंगल, बृहस्पति, शनैश्चर, यूरेनस, नेपच्यून उल्का समूह (methods), तथा चन्द्रमा" । इन में से "पृथिवी" शिरोभूत है, मुखिया है। पृथिवी तथा अन्न से सम्पन्न है, अतः सम्पन्न होने से मुखिया है। ये सब सूर्य से उत्पन्न हैं, इसलिये सूर्य के वत्स है। ये सूर्य की परिक्रमाएं कर रहे हैं, मानो इस द्वारा सूर्य-पिता का उपस्थान कर रहे है। उसका समूह किसी समय एक ग्रह (Planet) था- ऐसा पाश्चात्य ज्योतिर्विद् मानते हैं। अतः उल्का समूह भी ग्रहरूप हैं] [१."अयुताः" पाठ भी मिलता है। अयुताः का अर्थ है पृथक्-पृथक्। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय पृथक्-पृथक् हैं, अतः प्रत्येक इन्द्रिय की विषय ग्रहण शक्ति भी पृथक्-पृथक् हैं। प्रत्येक इन्द्रिय पृथक्-पृथक् रूप में निज की भेंट करती है।]
विषय
रोहित, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(तम्) उस आत्मा के समीप (वत्साः) दश पुत्र जिस प्रकार (एकशीर्षाणः) एक अपने शिरो भाग पर स्थित मुख्य गृहपति या पिता के अधीन रहते हैं उसी प्रकार (दश वत्साः) दश वत्स वास करने हारे प्राण (एकशीर्षाणः) एक शिरो भाग में विद्यमान होकर (उप तिष्टन्ति) उसके अधीन होकर रहते हैं। परमात्मपक्ष में—वायु, आदित्य, दिशा, ओषधि, वनस्पति, चन्द्रमा, मृत्यु, आपः आदि दशों प्राणों के मूलपदार्थ लेने या दश दिशाएं दश वत्स हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Savita, Aditya, Rohita, the Spirit
Meaning
Ten darlings, together engaged, one chief among them, stand about and adore him. The sky overflows with light, Mahendra comes wrapped in the halo of divinity. (Ten darlings: five organs of perception with mana, buddhi, chitta, aharkara and Jivatma, being the chief. In case of the sun, the ten are planets and satellites, abundant earth being the chief. Five pranas and five organs of volition could be taken as the ten darlings.)
Translation
The tén-thousand calves, having one common head, wait upon Him. The great resplendent Lord comes to the dimmed sky surrounded with rays.
Translation
The ten vital airs which have only one head(the Sutratman) accompany Him together.This…this
Translation
Ten dwelling places, in conjunction, serve God, their single leader. Great God pervades all the worlds with His refulgence.
Footnote
Ten places: North, East, South, West, Nadir, Zenith, four sub-directions. Ten dwelling places may also mean ten pranas.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(तम्) परमात्मानम् (वत्साः) वस निवासे-स प्रत्ययः। निवासस्थानाः सर्वलोकाः (उपतिष्ठन्ति) सेवन्ते (एकशीर्षाणः) एकः परमेश्वरः शिरः प्रधानो येषां ते (युताः) संयुक्ताः (दश) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादिचतसृभिः, ईशानादिचतसृभिर्दिग्भिः सम्बद्धाः ॥
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