अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
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इ॒यं या प॑रमे॒ष्ठिनी॒ वाग्दे॒वी ब्रह्म॑संशिता। ययै॒व स॑सृ॒जे घो॒रं तयै॒व शान्ति॑रस्तु नः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम्। या। प॒र॒मे॒ऽस्थिनी॑। वाक्। दे॒वी। ब्रह्म॑ऽसंशिता। यया॑। ए॒व। स॒सृ॒जे। घोरम्। तया॑। ए॒व। शान्तिः॑। अ॒स्तु॒। नः॒ ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता। ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः ॥
स्वर रहित पद पाठइयम्। या। परमेऽस्थिनी। वाक्। देवी। ब्रह्मऽसंशिता। यया। एव। ससृजे। घोरम्। तया। एव। शान्तिः। अस्तु। नः ॥९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इयम्) यह (या) जो (परमेष्ठिनी) सर्वोत्कृष्ट परमात्मा में ठहरनेवाली, (देवी) उत्तमगुणवाली (वाक्) वाणी (ब्रह्मसंशिता) वेदज्ञान से तीक्ष्ण की गयी है, और (यया) जिस [वाणी] के द्वारा (एव) ही (घोरम्) घोर [भयङ्कर पाप] (ससृजे) उत्पन्न हुआ है, (तया) उस [वाणी] के द्वारा (एव) ही (नः) हमारे लिये (शान्तिः) शान्ति [धैर्य, आनन्द] (अस्तु) होवे ॥३॥
भावार्थ
जिस वाणी के द्वारा वेदों को विचार कर परमात्मा को पहुँचते हैं, यदि उस वाणी द्वारा कोई अनर्थ होवे, विद्वान् मनुष्य उस भूल को उचित व्यवहार से सुधारकर शान्ति स्थापित करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(इयम्) दृश्यमाना (या) (परमेष्ठिनी) परमे कित्। उ० ४।१०। परम+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-इनि कित्, ङीप्, सप्तम्या अलुक् षत्वं च। परमे सर्वोत्कृष्टे परमात्मनि स्थितिशीला (वाक्) वाणी (देवी) दिव्यगुणा (ब्रह्मसंशिता) ब्रह्मणा वेदज्ञानेन सम्यक् तीक्ष्णीकृता उत्तेजिता (यया) वाचा (एव) निश्चयेन (ससृजे) सृष्टम्। उत्पन्नम् (घोरम्) भयङ्करं पापम् (तया) वाचा (एव) (शान्तिः) सुखकरी क्रिया। धैर्यम्। आनन्दः (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् ॥
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज-मधु उच्चारण करो।
आज मैं तुम्हें ये उद्गीत गाने के लिए आया हूँ मेरे प्यारे! राजा इस अग्नि का मानो देखो, अग्नि का गीत गाता हुआ, राजा बेटा! देखो, अपनी सभाएं करता हैं, अपनी सभा करता हुआ, राजा अपनी प्रजा को कहता है, हे प्रजाओं! तुम सत्य उच्चारण करो, मानो मैं भी सत्यवादी बनूंगा, जब तक मैं सत्यवादी नही बनूंगा, तो प्रजा मेरी सत्यवादी नही बनेगी। तो वह इसी अग्नि को ले करके अश्वमेध याग करता है, अश्वमेध याग करता है, मानो देखो, उसका याग, वह होता रहता हैं, जिसको मुनिवरों! देखो, हम देखो, जिसको बलिवैश्व याग कहते हैं। बलिवैश्व याग की कल्पना, जब राजा के समीप आती हैं, क्या कोई प्राणी हमें हनन नही करना चाहिए, इतना अहिंसा परमोधर्म आ जाना चाहिए, राजा के राष्ट्र में, क्या एक दूसरा प्राणी, प्राणी का भक्षक न हो। मेरे प्यारे! देखो, वाणी से देखो, वाणी से हिंसा का प्रारम्भ होता हैं, जब राजा अपनी वाणी से उद्गीत यथार्थता के रूप में गाता है, तो मुनिवरों! देखो, वह प्रजा भी, उसी प्रकार यथार्थ उद्गीत गाने लगती हैं, और गाती हुई मुनिवरों! देखो, प्रजा महान बन जाती है। राजा अश्वमेध याग और बलि वैश्व याग करता हैं, जब बलि वैश्व याग करता है तो सबके भाग अन्न में से देता है, वह मानो देखो, कुकर को भी देता हैं, और वह जितने भी पक्षी गण हैं, जलचर हैं देखो, उन सबको वह प्रदान करता रहता हैं।
तो मेरे प्यारे! देखो, अग्नि का जब चयन करता हैं, अग्नि की आभाओं में रत्त होने लगता है, तो मेरे प्यारे! देखो, वह राजा अपनी प्रजा से कहता है, हे प्रजाओं! तुम मानो अपने क्रिया कलापों में परिणत होते हुए, तुम प्रत्येक गृह में और बलिवैश्व याग अवश्य किया करो, क्योंकि बलिवैश्व याग, अग्नि में प्रदान किया जाता है। अग्नि उसे मानो उसकी भावना के साथ, वह प्रदान करती रहती हैं, इसी प्रकार उन्होने कहा सम्भवा अग्नि के द्वारा राजा देखो, राजा के राष्ट्र में यही अग्नि वाणी का स्वरूप धारण कर लेती हैं, जब वाणी कटु हो जाती हैं, तो राजा के राष्ट्र में कटुता आ जाती है जब यह वाणी मधुर बन जाती है, तो यही वाणी राजा के राष्ट्र का उत्थान कर देती हैं।
विषय
शान्ति, न कि घोर
पदार्थ
१.(इयम्) = यह (या) = जो (परमेष्ठिनी) = प्रभु में स्थित अथवा प्रभु से दी गई (देवी) = दिव्यशकिसम्पन्न (वाक्) = वाणी है, यह (ब्रह्मसंशिता) = ज्ञान के द्वारा तीव्र की गई है। ज्ञानवृद्धि से वाणी की शक्ति बढ़ती चलती है। अन्तत: इससे जो कुछ उच्चारित होता है, वैसा ही हो जाता है 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुवर्तते-सजन पुरुषों की वाणी अर्थ का अनुवर्तन करती है-यथार्थ होती है, परन्तु ऋषियों की वाणी का तो अर्थ अनुवर्तन करता है। वह जैसा कहते हैं, वैसा हो जाता है। इसी को 'वर व शाप देने का सामर्थ्य' कहते हैं। २. इसप्रकार ब्रह्मसंशित (यया) = जिस वाणी से (एव) = ही (घोरं ससृजे) = अति भयंकर कार्य किये जा सकते हैं, (तया) = उससे (न:) = हमारे लिए (शान्तिः एव अस्तु) = शान्ति ही हो। हम वाणी से कभी शाप देनेवाले न बनें।
भावार्थ
हम प्रभु-प्रदत्त वाणी को ज्ञानप्राप्ति द्वारा अति तीव्रशक्तिवाली बनाएँ, परन्तु इससे कभी शाप न देकर, वर ही देनेवाले बनें।
भाषार्थ
(परमेष्ठिनी) परमशक्ति जीवात्मा के आश्रय में स्थित रहनेवाली (ब्रह्मसंशिता) वेद द्वारा प्रशंसित (या) जो (इयम्) यह (देवी) दिव्यगुणों वाली (वाक्) मानुष वाणी है, (यया एव) जिसके द्वारा ही (घोरम्) घोरकर्म (ससृजे) किया गया है (तया एव) उस मानुष वाणी द्वारा ही (नः) हम सबको (शान्तिः अस्तु) शान्ति प्राप्त हो।
टिप्पणी
[परमेष्ठिनी१= परमे सर्वोत्कृष्टे जीवात्मनि तिष्ठतीति। ब्रह्मसंशिता= ब्रह्म (वेदः उणा० ४.१४७, महर्षि दयानन्द)+संशिता (प्रशंसित; यजुः० ११.८१ महर्षि दयानन्द)। यथा— “तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति” (अथर्व० ९.१०.२७)। देवी=मानुषवाणी दिव्यगुणोंवाली है, जिसके द्वारा कि मानुष प्रशस्त-व्यवहार चल रहे हैं। घोरम्= असत्यभाषण निन्दा अपलाप, कटु और कठोरभाषण ये वाणी के घोर कर्म हैं। सत्य-प्रियभाषण, परस्पर की प्रशंसा तथा आदर के वचन, परमेश्वर की स्तुति आदि वाणी के ये कर्म सबको शान्ति देते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Shanti
Meaning
May this Divine Word of the Veda which is revealed and exalted by Brahma, which is immanent and transcendent with Supreme immanent and transcendent Lord Brahma, by which alone most awful and sublime things can be known and done, bring us peace. By that same Divine Word may all be full of peace for us.
Translation
Sharpened with sacred knowledge, this divine speech, which is seated in the highest place, and with which the terrible (result) is produced, may, with that very same, there be peace for us.
Translation
May there be peace for us through that speech and knowledge by which the tremendous task can be done and which is that speech and knowledge which occupies its place in Supreme Being is wondrous and revealed by the Supreme Being.
Translation
May this divine speech, which is devoted to God and strengthened by Vedic lore by which are created ail terrific situations, be source of peace and .well-being for us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इयम्) दृश्यमाना (या) (परमेष्ठिनी) परमे कित्। उ० ४।१०। परम+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-इनि कित्, ङीप्, सप्तम्या अलुक् षत्वं च। परमे सर्वोत्कृष्टे परमात्मनि स्थितिशीला (वाक्) वाणी (देवी) दिव्यगुणा (ब्रह्मसंशिता) ब्रह्मणा वेदज्ञानेन सम्यक् तीक्ष्णीकृता उत्तेजिता (यया) वाचा (एव) निश्चयेन (ससृजे) सृष्टम्। उत्पन्नम् (घोरम्) भयङ्करं पापम् (तया) वाचा (एव) (शान्तिः) सुखकरी क्रिया। धैर्यम्। आनन्दः (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् ॥
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