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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शान्ति सूक्त
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    इ॒मानि॒ यानि॒ पञ्चे॑न्द्रि॒याणि॒ मनः॑षष्ठानि मे हृ॒दि ब्रह्म॑णा॒ संशि॑तानि। यैरे॒व स॑सृ॒जे घो॒रं तैरे॒व शान्ति॑रस्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मानि॑। यानि॑। पञ्च॑। इ॒न्द्रि॒याणि॑। मनः॑ऽषष्ठानि। मे॒। हृ॒दि। ब्रह्म॑णा। सम्ऽशि॑तानि। यैः। ए॒व। स॒सृ॒जे। घो॒रम्। तैः। ए॒व। शान्तिः॑। अ॒स्तु॒। नः॒ ॥९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमानि यानि पञ्चेन्द्रियाणि मनःषष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणा संशितानि। यैरेव ससृजे घोरं तैरेव शान्तिरस्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमानि। यानि। पञ्च। इन्द्रियाणि। मनःऽषष्ठानि। मे। हृदि। ब्रह्मणा। सम्ऽशितानि। यैः। एव। ससृजे। घोरम्। तैः। एव। शान्तिः। अस्तु। नः ॥९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमानि) ये (यानि) जो (मनःषष्ठानि) छठे मन सहित (पञ्च) पाँच (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ [कान, नेत्र, नासिका, जिह्वा और त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ] (मे) मेरे (हृदि) हृदय में (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (संशितानि) तीक्ष्ण की गयी हैं। और (यैः) जिन [इन्द्रियों] के द्वारा (एव) ही (घोरम्) घोर [भयङ्कर पाप] (ससृजे) उत्पन्न हुआ है, (तैः) उन के द्वारा (एव) ही (नः) हमारे लिये (शान्तिः) शान्ति [धैर्य्य, आनन्द] (अस्तु) होवे ॥५॥

    भावार्थ

    जो मन और सब ज्ञानेन्द्रियाँ वेदज्ञान से तेजस्वी हुए हैं, यदि उनके विकार से कोई पाप घटना हो जावे तो विद्वान् पुरुष उसे सुधारकर आपस में सुख भोगें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(इमानि) दृश्यमानानि (यानि) (पञ्च) (इन्द्रियाणि) श्रोत्रनेत्रनासिकाजिह्वात्वग्रूपाणि ज्ञानेन्द्रियाणि (मनःषष्ठानि) मनः षष्ठं येषां तानि (मे) मम (हृदि) हृदये (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (संशितानि) तीक्ष्णीकृतानि (यैः) इन्द्रियैः (तैः) इन्द्रियैः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥

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    विषय

    शान्तिकर इन्द्रियाँ

    पदार्थ

    १. (इमानि) = ये (यानि) = जो (पञ्च इन्द्रियाणि) = पाँच इन्द्रियाँ हैं, (मनःषष्ठानि) = मन इनके साथ छठा है। (ये) = सब (मे) = मेरे (हृदि) = हृदय में प्रादुर्भूत (ब्रह्मणा) = ज्ञान से संशितानि तीव्र की जाती हैं। जितना-जितना ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, उतना-उतना ही ये इन्द्रियाँ व मन तीन शक्तिवाले होते जाते हैं। २. उस समय (यै:एव) = जिन ब्रासंशित इन्द्रियों के द्वारा निश्चय से (घोरं ससृजे) = बड़ा भयंकर कार्य भी किया जा सकता है, (तै:) = उन इन्द्रियों से (न:) = हमारे लिए तो (शान्तिः एव अस्तु) = शान्ति ही हो।

    भावार्थ

    हम ज्ञान से तीन शक्तिवाली इन ज्ञानेन्द्रियों से संसार में सुख व शान्ति को ही बढ़ानेवाले हों। युद्धों व संहारों को बढ़ावा न दें।

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    भाषार्थ

    (मनःषष्ठानि) छठे मन सहित (यानि) जो (इमानि) ये (पञ्चेन्द्रियाणि) पाँच इन्द्रियाँ, (मे) मेरे (हृदि) हृदय में वर्त्तमान (ब्रह्मणा) परमेश्वर द्वारा (संशितानि) तनूकृत की जाती हैं, (यैः एव) जिनके द्वारा ही (घोरम्) घोरकर्म (ससृजे) किया गया है, (तैः एव) उनके द्वारा ही (नः) हमें (शान्तिः अस्तु) शान्ति प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [पञ्चेन्द्रियाणि= ५ ज्ञानेन्द्रियाँ और ५ कर्मेन्दियाँ। श्रोत्र त्वक्, चक्षु, जिह्वा, नासिका, ये ५ ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। गुदा, उपस्थ, हस्त, पाद, वाक् ये पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मन इन दोनों प्रकार की इन्द्रियों का संचालक है। अतः मन उभयात्मक इन्द्रिय है। अशुभ विचार और अशुभ विचारों द्वारा किये गये अति विषयभोग, ये मन तथा इन्द्रियों द्वारा किये गये घोरकर्म हैं। योगविधि से मानसिक-वृत्तियों के निरोध द्वारा, तथा प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियदमन करके शुभ कर्म किये जाते हैं। इस प्रकार जो मन और इन्द्रियाँ पहले घोरकर्म कराते थे, वे जब शुभ कर्म कराने वाले बन जाते हैं, तब जीवन में शान्ति प्राप्त होती है। परन्तु इसके लिए ब्रह्मोपासना अत्यन्त आवश्यक है। हृदयस्थ परमेश्वर उपासक की वृत्तियों को तनूकृत करने में सहायक होता है। यथा— “समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च” (योग २.२), तथा “अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनु-विच्छिन्नोदाराणाम्” (योग २.४);। संशितानि= सम्+शो (तनूकरणे)+क्त। योगसूत्रों में “तनू और तनु” शब्दों का जो अभिप्राय है, वही संशितानि पद में शो तनूकरणे का अभिप्राय है। तनूकरण=सूक्ष्म करना, निर्बल करना।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shanti

    Meaning

    These five senses which, with the mind, are six, which in my heart are energised and exalted by Brahma, Lord Supreme, with which most awful things can be done and achieved, may bring us peace. With those senses and mind, may all be full of peace for us.

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    Translation

    Sharpened with sacred knowledge, these five sense-organs, to which the mind is the sixth and which are in my heart, and wherewith terrible (result) is produced, may, with those very (sense-organs), there be peace for us.

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    Translation

    May there be peace for us even through those five cognitive organs and the mind as sixth by whom the dangerous task is performed and who are sharpened and placed in my heart.

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    Translation

    Here, in my heart, are these five sense-organs with mind, as the sixth ones, which are strengthened and sharpened by Vedic lore and celibacy. By these very organs, by which are created terrific situations, may peace and happiness be brought for us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(इमानि) दृश्यमानानि (यानि) (पञ्च) (इन्द्रियाणि) श्रोत्रनेत्रनासिकाजिह्वात्वग्रूपाणि ज्ञानेन्द्रियाणि (मनःषष्ठानि) मनः षष्ठं येषां तानि (मे) मम (हृदि) हृदये (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (संशितानि) तीक्ष्णीकृतानि (यैः) इन्द्रियैः (तैः) इन्द्रियैः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥

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