अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
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यथा॒ मक्षा॑ इ॒दं मधु॑ न्य॒ञ्जन्ति॒ मधा॒वधि॑। ए॒वा मे॑ अश्विना॒ वर्च॒स्तेजो॒ बल॒मोज॑श्च ध्रियताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मक्षा॑: । इ॒दम् । मधु॑ । नि॒ऽअ॒ञ्जन्ति॑ । मधौ॑ । अधि॑ । ए॒व । मे॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । वर्च॑: । तेज॑: । बल॑म् । ओज॑: । च॒ । ध्रि॒य॒ता॒म् ॥१.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मक्षा इदं मधु न्यञ्जन्ति मधावधि। एवा मे अश्विना वर्चस्तेजो बलमोजश्च ध्रियताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मक्षा: । इदम् । मधु । निऽअञ्जन्ति । मधौ । अधि । एव । मे । अश्विना । वर्च: । तेज: । बलम् । ओज: । च । ध्रियताम् ॥१.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (भक्षाः) संग्रह करनेवाले पुरुष [अथवा भ्रमर आदि जन्तु] (इदम्) ऐश्वर्य देनेवाले (मधु) ज्ञान [रस] को (मधौ) ज्ञान [वा मधु] के ऊपर (अधि) ठीक-ठीक (न्यञ्जन्ति) मिलाते जाते हैं, (एव) वैसे ही, (अश्विना) हे चतुर माता-पिता ! (मे) मेरे लिये (वर्चः) प्रकाश, (तेजः) तीक्ष्णता, (बलम्) बल (च) और (ओजः) पराक्रम (ध्रियताम्) धरा जावे ॥१७॥
भावार्थ
जिस प्रकार बुद्धिमान् पुरुष अनेक बुद्धिमानों से निरन्तर शिक्षा पाते हैं, अथवा जैसे भ्रमर आदि कीट पुष्प फल आदि से रस लेकर मधु एकत्र करते जाते हैं, वैसे ही माता-पिता अपने सन्तानों को उचित शिक्षा देकर बली और पराक्रमी बनावें ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(भक्षाः) भक्ष संघाते रोषे च-अच्। संग्रहीतारः पुरुषा भ्रमरादयः कीटा वा (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इदि परमैश्वर्ये कमिन्, नलोपः। परमैश्वर्यकारणम् (मधु) ज्ञानम् (न्यञ्जन्ति) अज्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। नितरां मिश्रयन्ति (तेजः) तीक्ष्णत्वम् (बलम्) (ओजः) पराक्रमः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
मधुकृतः, मक्षाः
पदार्थ
१. (यथा) = जिस प्रकार (मधौ) = मधुमास या वसन्तकाल में (मधुकृत:) = भ्रमर (मधु) = मधुरस को (अधिसभरन्ति) = आधिक्येन संग्रहीत करते हैं, (एव) = इसी प्रकार हे (अश्विना) = प्राणापानो! मे (आत्मनि वर्चः धियताम्) = मेरी आत्मा में वर्चस् का धारण किया जाए। २. (यथा) = जिस प्रकार (मक्षा:) = मधुमक्खियाँ (मधौ) = मधुमास या वसन्तकाल में (इदं मधु) = इस मधुरस को (अधिन्यजन्ति) = [अञ्ज गती] आधिक्येन प्राप्त करती है, (एव) = इसी प्रकार (अश्विना) = हे प्राणापानो! (मे आत्मनि) = मेरी आत्मा में (वर्च: तेज: बलम् ओज: च) = ब्रह्मवर्चस, तेज, बल और ओज (ध्रियताम्) = धारण किये जाएँ।
भावार्थ
जैसे भ्रमर और मधुमक्षिकाएँ थोड़ा-थोड़ा करके मधु का सञ्चय करती हैं, इसी प्रकार हम प्राणसाधना करते हुए 'वर्चस, तेज, ओज व बल' को धारण करनेवाले हों।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (मक्षाः) मधुमक्खियां (इदम् मधु) इस मधु को (मधौ अधि) मधु में या मधुछत्ते में (न्यञ्जन्ति) नितरां लेपती रहती हैं, (एवा) इसी प्रकार (अश्विना) हे अश्वियों ! (मे) मुझ में (वर्चः, तेजः, बलम् ओजः च) वर्चस्, तेजस, बल और ओजस् (ध्रियताम्) स्थापित हो।
टिप्पणी
[वर्चस्= आत्मिक तेजस्; तेजस्= शारीरिक तेजस्, बलम्= शारीरिक बल, ओजस्= पराक्रम शक्ति। न्यजन्ति= नि + अञ्जन् (म्रक्षणे)]।
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
Just as honey bees collect honey and add it to their store of honey in the honey comb, so may the Ashvins bless me with more and more light and lustre, brilliance of life and intellect, strength of body and mind, and splendour of personality.
Translation
As the male bees besmear this honey in the honey-comb, even so, O twins-divine, may my lustre, brilliance, strength and vigour be maintained.
Translation
As bees besmear this honey-store on the honey in the same mannerly in me, O teacher and preacher! splendor, strength; power and might.
Translation
As honey-bees collect honey in spring, so may God and teacher, my Gurus, enhance my splendor, strength, power and might.
Footnote
Aswins may mean mother and father as well.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(भक्षाः) भक्ष संघाते रोषे च-अच्। संग्रहीतारः पुरुषा भ्रमरादयः कीटा वा (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इदि परमैश्वर्ये कमिन्, नलोपः। परमैश्वर्यकारणम् (मधु) ज्ञानम् (न्यञ्जन्ति) अज्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। नितरां मिश्रयन्ति (तेजः) तीक्ष्णत्वम् (बलम्) (ओजः) पराक्रमः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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