अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
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मा॒तादि॒त्यानां॑ दुहि॒ता वसू॑नां प्रा॒णः प्र॒जाना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑। हिर॑ण्यवर्णा मधुक॒शा घृ॒ताची॑ म॒हान्भर्ग॑श्चरति॒ मर्त्ये॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒ता । आ॒दित्याना॑म् । दु॒हि॒ता । वसू॑नाम् । प्रा॒ण: । प्र॒ऽजाना॑म् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑: । हिर॑ण्यऽवर्णा । म॒धु॒ऽक॒शा। घृ॒ताची॑ । म॒हान् । भर्ग॑: । च॒र॒ति॒ । मर्त्ये॑षु ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मातादित्यानां दुहिता वसूनां प्राणः प्रजानाममृतस्य नाभिः। हिरण्यवर्णा मधुकशा घृताची महान्भर्गश्चरति मर्त्येषु ॥
स्वर रहित पद पाठमाता । आदित्यानाम् । दुहिता । वसूनाम् । प्राण: । प्रऽजानाम् । अमृतस्य । नाभि: । हिरण्यऽवर्णा । मधुऽकशा। घृताची । महान् । भर्ग: । चरति । मर्त्येषु ॥१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(आदित्यानाम्) सूर्यलोकों की (माता) माता [बनानेवाली] (वसूनाम्) धनों की (दुहिता) पूर्ण करनेहारी, (प्रजानाम्) प्रजाओं [जीव जन्तुओं] की (प्राणः) प्राण [जीवन] और (अमृतस्य) अमरपन [महापुरुषार्थ] की (नाभिः) नाभी [मध्य], (हिरण्यवर्णा) तेज रूपवाली, (घृताची) सेचन सामर्थ्य पहुँचानेवाली (मधुकशा) मधुकशा [वेदवाणी] (महान्) बड़े (भर्गः) प्रकाश [रूप होकर] (मर्त्येषु) मनुष्यों के बीच (चरति) विचरती है ॥४॥
भावार्थ
वेदवाणी द्वारा सब लोक-लोकान्तर और समस्त मनुष्य आदि प्राणी भीतरी और बाहिरी शक्ति प्राप्त करके ठहरे हुए हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(माता) निर्मात्री (आदित्यानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (दुहिता) अ० ३।१०।१३। प्रपूरयित्री (वसूनाम्) धनानाम् (प्राणः) जीवनम् (प्रजानाम्) जीवजन्तूनाम् (अमृतस्य) अमरणस्य। महापुरुषार्थस्य (नाभिः) मध्यदेशः (हिरण्यवर्णा) तेजोरूपा (मधुकशा) म० १। वेदवाणी (घृताची) अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। घृ सेचने दीप्तौ च-क्त। ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। अञ्चु, गतिपूजनयोः-क्तिन्। अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति। पा० ६।४।२४। नलोपः। अचः। पा० ६।४।१३८। अकारलोपः। चौ। पा० ६।३।१३८। दीर्घः। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। वा० पा० ४।१।६। ङीप्। घृताची रात्रीनाम-निघ० १।७। सेचनसामर्थ्यप्रापयित्री (महान्) प्रवृद्धः (भर्गः) भ्रस्ज पाके-घञ्। प्रकाशः (चरति) विचरति (मर्त्येषु) मनुष्येषु ॥
विषय
हिरण्यवर्णा मधुकशा
पदार्थ
१. यह (मधुकशा) = वेदवाणी (आदित्यानां माता) = आदित्यों की प्रकृति, जीव व परमात्मा' के ज्ञान को अपने अन्दर लेनेवालों की निर्मात्री है। इसका अध्येता सब ज्ञानों का अपने अन्दर उपादान करता है, क्योंकि यह सब विद्याओं का भण्डार तो है ही। यह (वसूनां दुहिता) = निवास के लिए आवश्यक सब तत्वों को प्रपूरिका है-यह शरीर को स्वस्थ, मन को निर्मल व मस्तिष्क को दीप्त करती है। यह वेदवाणी वस्तुतः (प्रजानां प्राण:) = प्रजाओं का प्राण ही है-सब प्रजाओं को प्राणशक्ति-सम्पन्न करती है। वेदवाणी हमें विलास से दूर करके विनाश से बचाती है। इसप्रकार यह (अमृतस्य नाभि:) = अमृत का केन्द्र है-हममें अमृतत्व को बाँधनेवाली है [णह बन्धने]। २. (हिरण्यवर्णा) = हित-रमणीय ज्ञानों का वर्णन करनेवाली है, (घृताची) = मल-क्षरण व ज्ञान-दीति को प्राप्त करानेवाली है [धू क्षरणदीप्त्योः ]। यह मधुकशा महान् (भर्ग:) = महनीय तेज है-महनीय प्रभु का प्रकाश है, यह (मर्त्येषु चरति) = मानवों के निमित्त-मानवमात्र के हित के लिए गतिवाली होती है। यह मधुकशा मनुष्य को ठीक ज्ञान देती हुई, कर्तव्य-मार्ग का दर्शन कराती हुई, उसका कल्याण करती है।
भावार्थ
वेदवाणी आदित्यों की माता है, वसुओं की दुहिता, प्रजाओं का प्राण व अमृत की नाभि है। यह हिरण्यवर्णा, घृताची, मधुकशा एक महान् तेज है, जो मानवमात्र के हित में प्रवृत्त है।
भाषार्थ
(आदित्यानाम् माता) आदित्य ब्रह्मचारियों के लिये मातृरूपा, (वसूनाम्) वसु ब्रह्मचारियों के लिये (दुहिता) दुहितारूपा, (प्रजानाम् प्राणः) प्रजाओं के लिये प्राणरूपा, (अमृतस्य) अमृत हुए जीवात्मा के लिये (नाभिः) नाभि सदृश पोषिका, (हिरण्यवर्णा) हितकर तथा रमणीय रूप वाली या हिरण्य सदृश चमकीली, (घृताची) दीप्ति से अञ्चिता (मधुकशा) मीठी-चाबुक रूपी पारमेश्वरी माता (मर्त्येषु) मनुष्यों में (महान् भर्गः) महाभर्ग रूप हुई (चरति) विचरती है।
टिप्पणी
[आदित्य ब्रह्मचारी तो ब्रह्मचर्य विषयक कामनाओं को पूर्ण कर चुके हैं, अतः उन के लिये पारमेश्वरी माता मातृवत् केवल स्नेहकारिणी होती है। वसु ब्रह्मचारियों की ब्रह्मचर्य विषयक कामनाओं की पूर्ति के लिये वह "दुहिता" रूपा है। दुहिता= "देग्धि कार्याणि प्रपूरयतीति दुहिता" (उणा० २।९७, म० दयानन्द)। जैसे दुहिता स्नेहवश माता-पिता की कामनाओं को, सेवा द्वारा, पूरित करती है, वैसे पारमेश्वरी माता वसुओं की कामनाओं को पूरित करती है। वह मुक्त हुए जीवात्मा की पोषिका है, जैसे नाभिनाल द्वारा माता गर्भस्थ शिशु का पोषण करती है। घृताची= घृ दीप्तौ + अच्। भर्गः= पापों का भर्जन करने वाली। यथा "भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" (यजु० ३।३५ २२।९; ३०।२)। आदित्यानाम् माता= आदित्यानामर्थे माता, इत्यादि]
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
Mother of the light of stars, daughter and harbinger of the planetary supports of life, life breath of the children of earth and the centre source of the nectar of immortality, Madhukasha sojourns among mortals, wrapped in gold, replete with honey and showers of ghrta, lustrous light and grandeur of divinity itself.
Translation
Mother of the adityas (suns), daughter of the Vasus, vital breath of the people, navel of immortality, the golden-hued honey-string, dripping purified butter, moves among (within) mortals as great brilliance.
Translation
Madhukasha, the Vedic speech is like the mother of Aditays, learned men who practiced the discipline of celibacy for 48 Years and attained knowledge, is like the daughter of the Learned men who observed the rules of continent and austerity for 25 years and attained knowledge; is vital force of all the creatures and is the store of immortality and blessedness. Possessing its own effulgence, full of all knowledge this Madhukasha is a mighty splendor which moves in the immortals.
Translation
Vedic knowledge is the nourisher of Aditya Brahmcharies, the fulfiller of the ambitions of men, life of living creatures, the bestower of salvation, full of splendor, the infuser of strength. It moves amid mortals like a mighty lighthouse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(माता) निर्मात्री (आदित्यानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (दुहिता) अ० ३।१०।१३। प्रपूरयित्री (वसूनाम्) धनानाम् (प्राणः) जीवनम् (प्रजानाम्) जीवजन्तूनाम् (अमृतस्य) अमरणस्य। महापुरुषार्थस्य (नाभिः) मध्यदेशः (हिरण्यवर्णा) तेजोरूपा (मधुकशा) म० १। वेदवाणी (घृताची) अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। घृ सेचने दीप्तौ च-क्त। ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। अञ्चु, गतिपूजनयोः-क्तिन्। अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति। पा० ६।४।२४। नलोपः। अचः। पा० ६।४।१३८। अकारलोपः। चौ। पा० ६।३।१३८। दीर्घः। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। वा० पा० ४।१।६। ङीप्। घृताची रात्रीनाम-निघ० १।७। सेचनसामर्थ्यप्रापयित्री (महान्) प्रवृद्धः (भर्गः) भ्रस्ज पाके-घञ्। प्रकाशः (चरति) विचरति (मर्त्येषु) मनुष्येषु ॥
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