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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
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    यद्गि॒रिषु॒ पर्व॑तेषु॒ गोष्वश्वे॑षु॒ यन्मधु॑। सुरा॑यां सि॒च्यमा॑नायां॒ यत्तत्र॒ मधु॒ तन्मयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गि॒रिषु॑ । पर्व॑तेषु । गोषु॑ । अश्वे॑षु । यत् । मधु॑ । सुरा॑याम् । सि॒च्यमा॑नायाम् । यत् । तत्र॑ । मधु॑ । तत् । मयि॑ ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गिरिषु पर्वतेषु गोष्वश्वेषु यन्मधु। सुरायां सिच्यमानायां यत्तत्र मधु तन्मयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । गिरिषु । पर्वतेषु । गोषु । अश्वेषु । यत् । मधु । सुरायाम् । सिच्यमानायाम् । यत् । तत्र । मधु । तत् । मयि ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो [ज्ञान] (गिरिषु) स्तुतियोग्य सन्न्यासियों में, (पर्वतेषु) मेघों में, (गोषु) गौओं में और (अश्वेषु) घोड़ों में (यत्) जो (मधु) ज्ञान है, (तत्र) उस (सिच्यमानायाम् सुरायाम्) बहते हुए जल [अथवा बढ़ते हुए ऐश्वर्य] में (यत् मधु) जो ज्ञान है, (तत्) वह (मयि) मुझ में [होवे] ॥१८॥

    भावार्थ

    विवेकी जन संसार के सब विद्वानों, सब प्राणियों और सब पदार्थों से गुण ग्रहण करके कीर्तिमान् होवें ॥१८॥ इस मन्त्र का उत्तर भाग भेद से आचुका है-अ० ६।६९।१ ॥

    टिप्पणी

    १८−(गिरिषु) अ० ५।४।१। स्तूयमानेषु संन्यासिषु (पर्वतेषु) अ० ४।९।१। मेघेषु-निघ० १।१०। (सुरायाम्) अ० ६।६९।१। षुञ् अभिषवे, वा षु ऐश्वर्ये क्रन् यद्वा, षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः-क, टाप्। जले। ऐश्वर्ये (सिच्यमानायाम्) प्रवहन्त्याम्। प्रवर्धमानायाम् (यत्) (तत्र) तस्याम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    माधुर्यं

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (मधु) = मधुररस-जीवनप्रद ओषधियों का रस (गिरिषु) = बड़े-बड़े पर्वतों में है, (यत्) = जो (पर्वतेषु) = छोटे पर्वतों पर ओषधियों व फलों का रस है, (यत् मधु) = जो मधुरस (गोषु अश्वेषु) = गौओं में मधुर दूध का तथा तीव्र वेगवाले घोड़ों में जो विजय-लक्ष्मी का मधुर आनन्द है, इसी प्रकार (सिच्यमानायाम्) = पृथिवी पर मेघों से सिक्त किये जाते हुए (सुरायाम्) = वृष्टिजल में (यत्) = जो (तत्र मधु) = वहाँ मधु है, (तत् मयि) = वह मधु मुझमें भी हो।

    भावार्थ

    जिस प्रकार पर्वतों की ओषधियों में मधुर रस है, जैसे गोदुग्ध में मधुरता है, घोड़े की तीव्र गति में जो विजय-लक्ष्मी का मधु है तथा मेघ-सिक्त वृष्टिजल में जो माधुर्य है, वही माधुर्य मेरी वाणी में भी हो।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (गिरिषु) पर्वतों में, (पर्वतेषु) मेघों में, और (यत्) जो (गोषु, अश्वेषु) गौओं में और अश्वों में (मधु) मधु है। (सिच्यमानायाम् सुरायाम्) सींचे जाने वाले उदक में तथा (तत्र) उस खेत में [जिसमें कि जल सींचा जाता है] (यत्) जो (मधु) मधु है, (तत् मयि) उस प्रकार मधु, अर्थात् माधुर्य (मयि) मुझ में हो।

    टिप्पणी

    [पर्वतों में मधु है स्वच्छ तथा शीतल वायु। मेघों में मधु है स्वच्छ मधुर जल। गौओं में मधु है मधुर दूध। अश्वों में मधु है मधुर चाल। सींचे जाने वाले उदक में है अन्नोत्पादन की शक्ति। खेत में मधु है नानाविध उत्पन्न अन्न। इन नाना प्रकार के मधुओं के सदृश याचक अपने लिये मधु की याचना करता है। पर्वतेषु= पर्वतः मेघनाम (निघं० १।१०)। सुरा उदक नाम (निघं० १।१२)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    The honey sweets of life and vigour that there be in mountains and clouds, in cows and horses, and the power and inspiration that there be in the purest drink of divinities distilled and showered on earth, let that honey sweet of vigour and spirit be in me.

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    Translation

    What sweetness is there in hills, in mountains, in cows, in horses, and what in the intoxicating drink being poured out, may that sweetness be in me.

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    Translation

    Let come into me the vigor which is found in mountain, clouds and which is in cows and horses which is seen there where the Pungent drink is sprinkled out.

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    Translation

    May I possess the majesty of mountains, the splendor of hills, the sweetness of the milk of kine, the swiftness of horses, and beauty of flowing waters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(गिरिषु) अ० ५।४।१। स्तूयमानेषु संन्यासिषु (पर्वतेषु) अ० ४।९।१। मेघेषु-निघ० १।१०। (सुरायाम्) अ० ६।६९।१। षुञ् अभिषवे, वा षु ऐश्वर्ये क्रन् यद्वा, षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः-क, टाप्। जले। ऐश्वर्ये (सिच्यमानायाम्) प्रवहन्त्याम्। प्रवर्धमानायाम् (यत्) (तत्र) तस्याम्। अन्यद् गतम् ॥

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