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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - भुरिग्विष्टारपङ्क्तिः सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    0

    स्त॑नयि॒त्नुस्ते॒ वाक्प्र॑जापते॒ वृषा॒ शुष्मं॑ क्षिपसि॒ भूम्यां॑ दि॒वि। तां प॒शव॒ उप॑ जीवन्ति॒ सर्वे॒ तेनो॒ सेष॒मूर्जं॑ पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्त॒नि॒यि॒त्नु: । ते॒ । वाक् । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ । वृषा॑ । शुष्म॑म् । क्षि॒प॒सि॒ । भूम्या॑म् । दि॒वि । ताम् । प॒शव॑: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । सर्वे॑ । तेनो॒ इति॑ । सा । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । पि॒प॒र्ति॒ ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तनयित्नुस्ते वाक्प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यां दिवि। तां पशव उप जीवन्ति सर्वे तेनो सेषमूर्जं पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तनियित्नु: । ते । वाक् । प्रजाऽपते । वृषा । शुष्मम् । क्षिपसि । भूम्याम् । दिवि । ताम् । पशव: । उप । जीवन्ति । सर्वे । तेनो इति । सा । इषम् । ऊर्जम् । पिपर्ति ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापते) हे प्रजापालक ! [परमेश्वर] (ते) तेरी (वाक्) वाणी (स्तनयित्नुः) मेघ की गर्जन [समान] है, (वृषा) तू ऐश्वर्यवान् होकर (शुष्मम्) बल को (भूम्याम्) भूमि पर और (दिवि) आकाश में (क्षिपसि) फैलाता है। (सर्वे) सब (पशवः) देखनेवाले [जीव] (ताम्) उस [वाणी] का (उप) सहारा लेकर (जीवन्ति) जीते हैं, (तेनो) उसी ही [कारण] से (सा) वह (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) पराक्रम (पिपर्त्ति) भरती है ॥२०॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापिनी वेदवाणी द्वारा ही सब प्राणी अपनी जीविका प्राप्त करके जीते हैं ॥२०॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध मन्त्र १० में आ चुका है, केवल (अधि) के स्थान पर (दिवि) है ॥

    टिप्पणी

    २०−(दिवि) आकाशे (ताम्) वाचम् (पशवः) अ० २।२६।१। द्रष्टारः प्राणिनः (उप) उपेत्य (जीवन्ति) (सर्वे) (तेनो) तेनैव कारणेन (सा) वाक् (इषम्) अ० ३।१०।७। अन्नम् (ऊर्जम्) बलम् (पिपर्ति) पूरयति। अन्यत् पूर्ववत्-म० १० ॥

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    विषय

    इषम्, ऊर्जम्

    पदार्थ

    १.हे (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (ते वाक स्तनयित्नु:) = आपकी वाणी मेघगर्जन के समान गम्भीर है। आप (वृषा) = समस्त सुखों के वर्षक हो। (भूम्याम्) = इस भूमि पर (दिवि) = तथा युलोक में आप (शमं क्षिपसि) = बल को प्रेरित करते हैं। शरीर [भूमि] तथा मस्तिष्क [धुलोक] को आप सबल बनाते हैं। २. (ताम्) = आपकी उस वाणी को ही आधार बनाकर (सर्वे पशवः उपजीवन्ति) = सब तत्त्वद्रष्टा [पश्यन्ति इति पशवः] जीवित होते हैं अपने जीवन का आधार उस वाणी को ही बनाते हैं। (तेन उ) = उस जीवन को देने के हेतु से ही (सा) = वह वाणी (इषम्) = मस्तिष्क में सत्कर्म की प्रेरणा को तथा शरीर में (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (पिपर्ति) = पूरित करती है। इस शक्ति के द्वारा ही हम उस प्रेरणा को अपने जीवन का अङ्ग बना पाते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु की वाणी मेघगर्जन के समान है। वे सुखवर्षक प्रभु हमारे मस्तिष्क व शरीर को सबल बनाते हैं। सब तत्वद्रष्टा प्रभु की वाणी को ही अपने जीवन का आधार बनाते हैं। यह वाणी मस्तिष्क में प्रेरणा और शरीर में शक्ति को पूरित करती है।

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    भाषार्थ

    (प्रजापते) हे प्रजाओं के रक्षक या स्वामिन् परमेश्वर! (स्तनयिनुः) मेघगर्जना (ते) तेरी (वाक्१) वाणी है, (वृषः) वर्षा करने वाला तू (शुष्मम्) बलप्रद उदक को (भूम्याम्) भूमि में (दिवि)२ तथा द्युलोक में (क्षिपसि) फैंकता है। (ताम्) उस उदक वाली भूमि के (उप) आश्रय (सर्वे पशवः) सब पशु (जीवन्ति) जीवित हैं, (तेन उ) उस उदक द्वारा (सेषम्) अन्न सहित (उर्जम्) वल या प्राण (पिपर्ति) पालित होता है।

    टिप्पणी

    [ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)। रषम् अन्ननाम (निघं० २।७)] [१. तू ही मेघ में शक्ति प्रदान कर उसमें गर्जना प्रकट करता है, अतः मानो गर्जना तेरी ही वाणी रूप है। २. वैदिक सिद्धान्तानुसार लोकलोकान्तरों में भी प्राणी सृष्टि (यजु० ३१।१६) है। तथा महर्षि दयानन्द के अनुसार “जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश [पृथिवी में है, वैसी ही जाति की सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिस जिस शरीर के प्रदेश में नेत्रादि अंग हैं उसी उसी प्रदेश में लोकान्तर में भी उसी जाती के अवयव भी वैसे ही होते हैं" (सत्यार्थप्रकाश), अष्टम समुल्लास इनके जीवन के लिये भी उदक चाहिये। इस लिये मन्त्र में "दिवि" द्वारा वर्षा को सूचित किया है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    0 Prajapati, lord sustainer of living beings, your voice is thunder, lightning and the cloud showers. Mighty generous as you are, with that voice you radiate light in heaven and shower food, power and glory of life on earth. All living beings live by that light and shower, and, by that very light, power and vigour of the voice, nature fills and replenishes food, energy and vitality for them on earth.

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    Translation

    O Lord of creatures, thunder is your voice. You, a showerer, shower energy on earth and sky. On that all the animals live; with that only she gives food and vigour in abundance.

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    Translation

    O Lord of the creatures ! thunder is thy inarticulate voice. Thou art mighty one. Thou castest strength on the earth and in the heaven, for their existence all the cattle’s look to that and it is the reason that this voice nourishes their force and vigor.

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    Translation

    O God, the Lord of Creatures, Thy Vedic speech is imposing like the thunder of a cloud. Thou art the Bestower ofjoys and comfort. Thou castest strength on earth and heaven. To that Vedic knowledge all sentient souls look for their existence that is why she nourishes men with food, force and vigor.

    Footnote

    She: Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(दिवि) आकाशे (ताम्) वाचम् (पशवः) अ० २।२६।१। द्रष्टारः प्राणिनः (उप) उपेत्य (जीवन्ति) (सर्वे) (तेनो) तेनैव कारणेन (सा) वाक् (इषम्) अ० ३।१०।७। अन्नम् (ऊर्जम्) बलम् (पिपर्ति) पूरयति। अन्यत् पूर्ववत्-म० १० ॥

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