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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अग्नी॑षोमा॒ य आहु॑तिं॒ यो वां॒ दाशा॑द्ध॒विष्कृ॑तिम्। स प्र॒जया॑ सु॒वीर्यं॒ विश्व॒मायु॒र्व्य॑श्नवत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नी॑षोमा । यः । आहु॑तिम् । यः । वा॒म् । दासा॑त् । ह॒विःऽकृ॑तिम् । सः । प्र॒ऽजया॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । विश्व॑म् । आयुः॑ । वि । अ॒श्न॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमा य आहुतिं यो वां दाशाद्धविष्कृतिम्। स प्रजया सुवीर्यं विश्वमायुर्व्यश्नवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमा। यः। आहुतिम्। यः। वाम्। दाशात्। हविःऽकृतिम्। सः। प्रऽजया। सुऽवीर्यम्। विश्वम्। आयुः। वि। अश्नवत् ॥ १.९३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेताभ्यां भौतिकसम्बन्धकृत्यमुपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यो यो मनुष्योऽग्नीषोमयोर्वामेतयोर्मध्ये हविष्कृतिमाहुतिं दाशात् स प्रजया सुवीर्यं विश्वमायुर्व्यश्नवत् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अग्नीषोमा) अग्निवाय्वोः। अत्र षष्ठीद्विवचनस्य स्थाने डादेशः। (यः) सर्वस्य हितं प्रेप्सुर्मनुष्यः (आहुतिम्) घृतादिसुसंस्कृताम् (यः) यज्ञानुष्ठाता (वाम्) एतयोः (दाशात्) दाशेद्दद्यात् (हविष्कृतिम्) हविषो होतव्यस्य पदार्थस्य कृतिं कारणरूपाम् (सः) (प्रजया) सुपुत्रादियुक्तया (सुवीर्यम्) सुष्ठुपराक्रमयुक्तम् (विश्वम्) समग्रम् (आयुः) जीवनम् (वि) विविधार्थे (अश्नवत्) व्याप्नुयात्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं शप् च ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो वायुवृष्टिजलौषधिशुद्ध्यर्थ सुसंस्कृतं हविरग्नौ हुत्वोत्तमान्सोमलतादीन् प्राप्य तैः प्राणिनः सुखयन्ति च ते शरीरात्मबलयुक्ताः सन्तः पूर्णसुखमायुः प्राप्नुवन्ति नेतरे ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उक्त अग्नि, सोम शब्दों से भौतिक सम्बन्धी कार्यों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    (यः) सबके हित को चाहनेवाला और (यः) जो यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य (अग्नीषोमा) भौतिक अग्नि और पवन (वाम्) इन दोनों के बीच (हविष्कृतिम्) होम करने के योग्य पदार्थ का कारणरूप (आहुतिम्) घृत आदि उत्तम-उत्तम सुगन्धितादि पदार्थों से युक्त आहुति को (दाशात्) देवे (सः) वह (प्रजया) उत्तम-उत्तम सन्तानयुक्त प्रजा से (सुवीर्य्यम्) श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त (विश्वम्) समग्र (आयुः) आयुर्दा को (व्यश्नवत्) प्राप्त होवे ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् वायु, वृष्टि, जल और ओषधियों की शुद्धि के लिये अच्छे संस्कार किये हुए हवि को अग्नि के बीच होम के श्रेष्ठ सोमलतादि ओषधियों की प्राप्ति कर उनसे प्राणियों को सुख देते हैं, वे शरीर आत्मा के बल से युक्त होते हुए पूर्ण सुख करनेवाली आयु को प्राप्त होते हैं, अन्य नहीं ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रजा, सुवीर्य, विश्वायु

    पदार्थ

    १. हे (अग्नीषोमा) = अग्नि व सोम तत्त्वो ! प्राणापानो ! (यः) = जो भी (वाम्) = आपके प्रति उत्तम चरु की (आहुतिम्) = आहुति (दाशात्) = देता है, (यः) = जो आपके प्रति (हविष्कृतिम्) = [घृतमाज्यं हविः सर्पिः] घृत की आहुति देता है, (सः) = वह (प्रजया) = [प्रजन्] अपनी शक्तियों के प्रकृष्ट विकास के साथ (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को तथा (विश्वं आयुः) = पूर्ण जीवन को (अश्नवत्) = प्राप्त करता है । २. शरीर में प्राणापान के द्वारा ही अन्न का पाचन होता है । वैश्वानर अग्नि [जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर ही तो चतुर्विध भोजनों का पचन करती है । इन प्राणापानों को चरु व घृत की आहुति ही प्राप्त करानी चाहिए । भक्षण के योग्य उत्तम यज्ञीय अन्न व घृत के प्रयोग से शक्तियों का विकास उत्तमता से होता है, सुवीर्य की प्राप्ति होती है और हम पूर्ण जीवन को भोगनेवाले होते हैं । ३. भोजन की शुद्धता को महत्त्व देने के लिए भोजन भी यहाँ एक यज्ञ के रूप में चित्रित हुआ है, जिसमें उत्तम अन्न व घृत की आहुतियाँ प्राणापानरूप में अग्नि में दी जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = उत्तम सात्त्विक अन्न व घृत के सेवन से हम विकास, शक्ति व पूर्ण जीवन को प्राप्त करते हैं ।

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    विषय

    दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।

    भावार्थ

    हे ( अग्निषोमा ) अग्ने ! हे सोम, वायो ! ( यः ) जो ( वाम् ) तुम दोनों के बीच ( हविष्कृतिम् ) भावी में प्रचुर अन्न को उत्पन्न करने वाली ( आहुतिं ) आहुति ( दाशात् ) प्रदान करता है ( सः ) वह ( प्रजया ) प्रजा सहित ( सुवीर्यम् ) उत्तम बल से युक्त ( विश्वम् ) पूर्ण (आयुः) आयु को (वि-अश्नवत् ) विविध प्रकार से भोग करे। हे अग्रणी ज्ञानवन् ! ब्राह्मण ! हे ( सोम ) सबके आज्ञापक राजन् ! जो आप दोनों के ( हविष्कृतिम् ) राष्ट्र को वश करने में योग्य बना देने वाली ( आहुतिम् ) कर की अदायगी कर देते हैं वह उत्तम प्रजा, बल और पूर्णायु का भोग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान, वायू, वृष्टी, जल व औषधींच्या शुद्धीसाठी संस्कारित केलेली आहुती होम अग्नीत टाकतात व श्रेष्ठ सोमलता इत्यादी औषधी प्राप्त करून त्याद्वारे प्राण्यांना सुख देतात. त्यांच्या शरीर, आत्म्याचे बल वाढते व ते पूर्ण सुखी आयुष्य भोगतात. इतर नव्हे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni-Soma, fire, air and waters of the firmament, whoever the person offering you oblations in yajna and holy gifts of yajna in charity, may he, we pray, be blest with best of health and energy and a full age of universal prosperity with a happy family and noble friends.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni and Soma in material sense are taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The man who offers Agni (fire) and Soma-moon plant oblations of clarified butter etc. enjoys sound strength, with progeny; through all his life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्नीषोमा) अग्नि वाय्वोः । अत्र षष्ठीद्विवचनस्य स्थाने डादेशः || = Oblation. (आहुतिम्) घृतादिसुसंस्कृताम् = Refined by the Ghee etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those learned persons who put the oblation of Ghee (clarified butter) etc. for the purification of air, rainy water and herbs in the fire and make people happy by obtaining Soma and other and invigorating plants creepers enjoy full age being endowed with physical and spiritual power and not others.

    Translator's Notes

    Here Rishi Dayananda has translated आनीषोमा as अग्निवाय्वोः for the meaning of सोम as वायु there is the authority of Shatapath 7. 3. 1. 1 though he has not quoted it.. योऽयं वायुः पवते सर्वे सामः ॥ शत० ७. ३. १. १।

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