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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अग्नी॑षोमा ह॒विष॒: प्रस्थि॑तस्य वी॒तं हर्य॑तं वृषणा जु॒षेथा॑म्। सु॒शर्मा॑णा॒ स्वव॑सा॒ हि भू॒तमथा॑ धत्तं॒ यज॑मानाय॒ शं योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नी॑षोमा । ह॒विषः॑ । प्रऽस्थि॑तस्य । वी॒तम् । हर्य॑तम् । वृ॒ष॒णा॒ । जु॒षेथा॑म् । सु॒ऽशर्मा॑णा । सु॒ऽअव॑सा । हि । भू॒तम् । अथ॑ । ध॒त्त॒म् । यज॑मानाय । शम् । योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमा हविष: प्रस्थितस्य वीतं हर्यतं वृषणा जुषेथाम्। सुशर्माणा स्ववसा हि भूतमथा धत्तं यजमानाय शं योः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमा। हविषः। प्रऽस्थितस्य। वीतम्। हर्यतम्। वृषणा। जुषेथाम्। सुऽशर्माणा। सुऽअवसा। हि। भूतम्। अथ। धत्तम्। यजमानाय। शम्। योः ॥ १.९३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं यौ वृषणां सुशर्म्माणाऽग्नीषोमा प्रस्थितस्य हविषो वीतं हर्यतं जुषेथा स्ववसा भूतमथैतस्माद्धि यजमानाय शं धत्तं पदार्थान् योः पृथक्कुरुतस्तौ सम्प्रयोजयत ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (अग्नीषोमा) अग्नीषोमौ प्रसिद्धौ वाय्वग्नी (हविषः) प्रक्षिप्तस्य घृतादेर्द्रव्यस्य (प्रस्थितस्य) देशान्तरं प्रतिगच्छतः (वीतम्) व्याप्नुतः (हर्य्यतम्) प्राप्नुतः (वृषणा) वृष्टिहेतू (जुषेथाम्) जुषेते सेवेते (सुशर्म्माणा) सुष्ठुसुखकारिणौ (स्ववसा) सुष्ठुरक्षकौ (हि) खलु (भूतम्) भवतः। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (अथ) आनन्तर्ये (धत्तम्) धरतः। अत्र सर्वत्र लडर्थे लोट्। (यजमानाय) जीवाय (शम्) सुखम् (योः) पदार्थानां पृथक्करणम्। अत्र युधातोर्डोसिः प्रत्ययोऽव्ययत्वं च ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरग्नौ यावन्ति सुगन्ध्यादियुक्तानि द्रव्याणि हूयन्ते तावन्ति वायुना सहाकाशं गत्वा मेघमण्डलस्थं जलं शोधयित्वा सर्वेषां जीवानां सुखहेतुकानि भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षसाधकानि भवन्तीति वेद्यम् ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो (वृषणा) वर्षा होने के निमित्त (सुशर्माणा) श्रेष्ठ सुख करनेवाले (अग्नीषोमा) प्रसिद्ध वायु और अग्नि (प्रस्थितस्य) देशान्तर में पहुँचनेवाले (हविषः) होमे हुए घी आदि को (वीतम्) व्याप्त होते (हर्य्यतम्) पाते (जुषेथाम्) सेवन करते और (स्ववसा) उत्तम रक्षा करनेवाले (भूतम्) होते हैं (अथ) इसके पीछे (हि) इसी कारण (यजमानाय) जीव के लिये अनन्त (शम्) सुख को (धत्तम्) धारण करते तथा (योः) पदार्थों को अलग-अलग करते हैं, उनको अच्छे प्रकार उपयोग में लाओ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि आग में जितने सुगन्धियुक्त पदार्थ होमे जाते हैं, सब पवन के साथ आकाश में जा मेघमण्डल के जल को शोध और सब जीवों के सुख के हेतु होकर उसके अनन्तर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करनेहारे होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    भोजनरूप यज्ञ [यज्ञरूप भोजन]

    पदार्थ

    १. वेद में 'ओदन एव ओदनं प्राशीत्' इस मन्त्र में सब प्रकार की आस्वादवृत्ति का निषेध करके भोजन को भी शरीररक्षा के लिए किया जानेवाला यज्ञ कहा है । एवं, भोजन में ग्रहण की जाती हुई प्रत्येक वस्तु यहाँ हवि कही गई है । यज्ञीय पदाथों की पवित्रता नितान्त आवश्यक है, अतः भोजन भी मद्य - मांसादि से एकदम शून्य व पवित्र ही होना चाहिए । प्राणापान के द्वारा इस भोजन का पाचन होता है, अतः कहते हैं कि हे (अग्नीषोमा) = प्राणापानो ! (प्रस्थितस्य) = इस प्राप्त (हविषः) = हविरूप भोजन का (वीतम्) = आप भक्षण करो, (हर्यतम्) = इसकी कामना करो, इसे चाहो, प्रसन्नतापूर्वक खाओ और हे (वृषणा) = हमारे जीवन में सुखों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! (जुषेथाम्) = आप इसका प्रीतिपूर्वक सेवन करो । प्रसन्नतापूर्वक खाया हुआ भोजन ही उत्तम धातुओं के निर्माण में कारण बना करता है । २. हे प्राणापानो ! आप (सुशर्मणा) = उत्तम सुख को देनेवाले व (स्ववसा) = उत्तम रक्षण करनेवाले [सु+अवसा] हि = निश्चय से (भूतम्) = होओ । (अथ) = और अब (यजमानाय) = इस यज्ञशील पुरुष के लिए भोजन को भी यज्ञरूप में ग्रहण करनेवाले पुरुष के लिए (शं योः) = रोगों के शमन को तथा भयों के यावन दूरीकरण को (धत्तम्) = स्थापित करो । आपके [प्राणापान के] ठीक से कार्य करने पर सब रोग शान्त हो जाते हैं और किसी प्रकार का भय नहीं रहता ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राणापान भोजन के ठीक पाचन के द्वारा नीरोगता व निर्भयता देते हैं ।

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    विषय

    दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अग्नीषोमा ) अग्नि और सोम आग और वायु दोनों मिल कर ( प्रस्थितस्य हविषः ) प्राप्त हुए चरु आदि खाद्य पदार्थ को ( वीतम् ) भस्म कर देते हैं और ( हर्यतम् ) अपने बीच में सूक्ष्म रूप से धारण करके ( वृषणा ) वर्षणशील होकर ( जुषेथाम् ) उससे स्वयं तृप्त हो, अन्यों को सुखी करते हैं । ( सु-अवसा सुशर्मणा भूतम् ) अपने उत्तम रक्षा सामर्थ्य से उत्तम सुख देने वाले होकर शान्ति और रोग नाश करते है उसी प्रकार हे (अग्नीषोमा) अग्ने ! अग्रणी, मुख्य ज्ञानप्रकाशक विद्वन् ! हे ( सोम ) ऐश्वर्यवन् राजन् ! अथवा आचार्य और शिक्षक ! तुम दोनों ( प्रस्थितय हविषः ) आप के पास प्रस्तुत किये ‘हवि’ ग्राह्य स्वीकार करने योग्य अन्नादि पदार्थों को ( वीतम् ) प्राप्त करो, स्वीकार करो । ( हर्यतं ) उसको चित्त से चाहें । और ( वृषणा ) समस्त अधीन शिष्यों और प्रजाजनों पर ज्ञान और सुखों की वर्षा करने वाले होकर ( जुषेथाम् ) उस स्वीकृत पदार्थों का सेवन करें। आप दोनों ( स्ववसा ) अपने उत्तम ज्ञान और रक्षण सामर्थ्य से ( हि ) निश्चय से ( सुशर्माणा ) उत्तम सुख शरण देने वाले ( भूतम् ) होवें । ( अथ ) और (यजमानाय) दानशील पुरुष के लिये ( शम् ) शान्ति प्राप्त करने और ( योः ) दुःखों को दूर करने वाले उपाय ( धत्तम् ) प्रदान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणले पाहिजे की अग्नीत जितके सुगंधी पदार्थ घातले जातात ते सर्व वायूद्वारे आकाशात जाऊन मेघमंडळातील जलाला शुद्ध करून सर्व जीवांच्या सुखाचे कारण बनून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची सिद्धी करणारे असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni and Soma, fire and wind, vitalise and impel the holy materials offered into the fire, carry it on and delight in their creative and expansive process. Creators and givers of comfort and joy, protectors of life they are, they bring peace and happiness for the yajamana, catalyse, refine and create new materials for him.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do they (Agni and soma) do is taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should apply well air and fire which cause rain, are good protectors, givers of good happiness taking the oblation put in the fire like Ghee etc. to distant places and leading the performer of the Yajna (non-violent sacrifice) health and exemption from ill.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्नीषोमौ) प्रसिद्धौ वाय्वग्नी = Well known air and fire. (वीतम्) व्याप्नुतः = Pervade. (हर्यतम्) प्राप्नुतः = Obtain. (यो:) पदार्थानां पृथक्करणम् = Separation of undesirable objects. अत्र युधातोर्डोसि प्रत्ययोऽव्ययत्वेन

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that whatever fragrant and other articles are put into the fire as oblations, they go to the sky along with the air, purify the water in the clouds and cause happiness to all beings and help in the accomplishment of Dharma धर्म (righteousness) अर्थ (wealth) काम (fulfilment of noble desires) and मोक्ष (emancipation).

    Translator's Notes

    वी-गतिव्याप्तिप्रजनव्याप्त्यसन खादनेषु हर्य-गतिप्रेप्सयोः गतेस्त्रयोऽर्थाः-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहरणं कृतं महर्षिणा दयानन्देन यु-मिश्रणामिश्रणयोः अत्र अमिश्रणस्य पृथक् करणस्य वा ग्रहरग्णम् ।

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