ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अग्नी॑षोमा॒ चेति॒ तद्वी॒र्यं॑ वां॒ यदमु॑ष्णीतमव॒सं प॒णिं गाः। अवा॑तिरतं॒ बृस॑यस्य॒ शेषोऽवि॑न्दतं॒ ज्योति॒रेकं॑ ब॒हुभ्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअग्नी॑षोमा । चेति॑ । तत् । वी॒र्य॑म् । वा॒म् । यत् । अमु॑ष्णीतम् । अ॒व॒सम् । प॒णिम् । गाः । अव॑ । अ॒ति॒र॒त॒म् । बृस॑यस्य । शेषः॑ । अवि॑न्दतम् । ज्योतिः॑ । एक॑म् । ब॒हुऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नीषोमा चेति तद्वीर्यं वां यदमुष्णीतमवसं पणिं गाः। अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतं ज्योतिरेकं बहुभ्य: ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नीषोमा। चेति। तत्। वीर्यम्। वाम्। यत्। अमुष्णीतम्। अवसम्। पणिम्। गाः। अव। अतिरतम्। बृसयस्य। शेषः। अविन्दतम्। ज्योतिः। एकम्। बहुऽभ्यः ॥ १.९३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यावग्नीषोमा यदवसं पणिं चामुष्णीतं गा विस्तार्य्यं तमोऽवातिरतं बहुभ्य एकं ज्योतिरविन्दतं ययोर्वृसयस्य शेषो लोकान् प्राप्नोति तद् वामनयोर्वीर्यं चेति सर्वैर्विदितमस्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अग्नीषोमा) वायुविद्युतौ (चेति) विज्ञातं प्रख्यातमस्ति (तत्) (वीर्यम्) पृथिव्यादिलोकानां बलम् (वाम्) ययोः (यत्) (अमुष्णीतम्) चोरवद्धरतम् (अवसम्) रक्षणादिकम् (पणिम्) व्यवहारम् (गाः) किरणान् (अव) (अतिरतम्) तमो हिंस्तः। अवतिरतिरिति वधकर्मा०। निघं० २। १९। (बृसयस्य) आच्छादकस्य। वस आच्छादन इत्यस्मात् पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः। (शेषः) अवशिष्टो भागः (अविन्दतम्) लम्भयतम् (ज्योतिः) दीप्तिम् (एकम्) असहायम् (बहुभ्यः) अनेकेभ्यः पदार्थेभ्यः ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यावत्प्रसिद्धं तमस आच्छादकं सर्वलोकप्रकाशकं तेजो जायते तावत्सर्वं कारणभूतयोर्वायुविद्युतोः सकाशाद्भवतीति बोध्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (अग्नीषोमा) वायु और विद्युत् (यत्) जिस (अवसम्) रक्षा आदि (पणिम्) व्यवहार को (अमुष्णीतम्) चोरते प्रसिद्धाप्रसिद्ध ग्रहण करते (गाः) सूर्य्य की किरणों का विस्तार कर (अवातिरतम्) अन्धकार का विनाश करते (बहुभ्यः) अनेकों पदार्थों से (एकम्) एक (ज्योतिः) सूर्य के प्रकाश को (अविन्दतम्) प्राप्त कराते हैं, जिनके (बृसयस्य) ढाँपनेवाले सूर्य का (शेषः) अवशेष भाग लोकों को प्राप्त होता है (वाम्) इनका (तत्) वह (वीर्य्यम्) पराक्रम (चेति) विदित है अर्थात् सब कोई जानते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि जितना प्रसिद्ध अन्धकार को ढाँप देने और सबलोकों को प्रकाशित करनेहारा तेज होता है, उतना सब कारणरूप पवन और बिजुली की उत्तेजना से होता है ॥ ४ ॥
विषय
एकं ज्योतिः
पदार्थ
१. (अग्नीषोमा) = अग्नि व सोम तत्त्वो ! प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (तत् वीर्यम्) = वह सामर्थ्य (चेति) = जाना जाता है (यत्) = कि आप (अवसम्) = [अव रक्षणे] शरीर के रोगों से रक्षण को, (पणिम्) = [पण स्तुतौ] मन में प्रभुस्तवन को तथा (गाः) = ज्ञानप्राप्ति व कर्म की साधनभूत इन्द्रियों - जोकि वृत्र से चुराई गई थीं, उनको (अमुष्णीतम्) = पुनः हर लाते हो । कामवासना 'खून' है । यह ज्ञान को तो आवृत्त करती ही है, प्रभुस्तवन से भी दूर करती है और शरीर को भी क्षीण करके रोगाक्रान्त कर देती है । एवं वृत्र 'अवस, पणि व गौओं का अपहरण करनेवाला है । प्राणापान वृत्र को नष्ट करके 'अवस, पणि व गौओं को फिर से वापस ले = आते हैं । २. 'बृस' धातु वेष्टनार्थक है । वृत्र ज्ञानादि का वेष्टन कर लेता है, अतः "बृसय" कहा गया है । 'शेषः' अपत्यवाचक है - बृसयस्य शेषः = 'बृसय का सन्तान' - यह प्रयोग बल देने के लिए हुआ है । हे प्राणापानो ! आप इस (बृसयस्य शेषः) = वृत्र के सन्तान को (अवातिरतम्) = [अबाधिष्टम्] नष्ट करते हैं । प्राणसाधना के द्वारा आप इस वासना को नष्ट कर देते हैं और इस वासनाविनाश के द्वारा (बहुभ्यः) = बहुतों के लिए अथवा 'बृंहते वर्धते' [बृहि वृद्धौ] शक्ति का वर्धन करनेवालों के लिए (एक ज्योतिः) = मुख्य ज्योति को = ब्रह्मज्योति को (अविन्दतम्) = प्राप्त कराते हो । प्राणसाधना से अशुद्धि का नाश होकर ज्ञान की दीप्ति होती है और विवेकख्याति होकर आत्मसाक्षात्कार होता है । इसी को यहाँ 'एक ज्योतिः' कहा गया है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से वासना का विनाश होता है और शरीर का रक्षण, मन में स्तवन तथा ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति का वर्धन होकर आत्मसाक्षात्कार होता है ।
विषय
दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।
भावार्थ
हे ( अग्नीषोमा ) अग्नि और सोम विद्वन् ! एवं राजन् ! ( वां ) तुम दोनों का ( वीर्यम् चेति ) वह वीर्य भी विदित ही है ( यत् ) कि आप दोनों ( अवसम् ) ज्ञान, ( पणिम् ) व्यवहार और ( गाः ) वाणियों को ( अमुष्णीतम् ) हर लेते हो । तुम दोनों ( बृसयस्य ) अपने समीप बसने वाले, अन्तेवासी आच्छादक छात्र को माता पिता के हितकारी ( शेषः ) पुत्र के समान ज्ञान साधना को (अवातिरतम्) प्रदान करो और ( बहुभ्यः ) बहुतों के लिये हितकारी ( एकम् ) एक सूर्य के समान आत्मरूप (ज्योतिः) ज्योति को ( अविन्दतम् ) प्राप्त कराओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी हे जाणले पाहिजे की घोर अंधकार नष्ट करणारे व सर्व गोलांना प्रकाशित करणारे जे तेज आहे ते सर्व कारणरूपी वायू व विद्युतच्या साह्याने प्राप्त होते.
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni-Soma, fire and water, your valour and power is revealed and known when you acquire and absorb the protective power of sun-rays, retain a part of the blaze, release the rest of the sun’s heat and bring down one uniform light for the many forms of life to survive and grow.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are Agni and Soma is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The prowess of the Agni and Soma (electricity and air) is well-known to all. They take away all protective dealing. They cause the spread of the rays of the sun and thereby dispel darkness. They cause the one great luminary (sun) for the benefit of the many, the remnant of whose light is got by the worlds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्नीषोमा) वायुविद्युतौ = Electricity and air. (गा:) किरणान् = Rays of the sun. (अवातिरतम्) हिस्तः । अतिरतिरिति वधकर्मा (निघ० २.१६) = Destroy or dispel. (बृसयस्य) आच्छादकस्य । वस आच्छादने इत्यस्मात् पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः । = Of coverer or remover of darkness. of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that the splendour that onlightens all and dispels darkness is caused by the electricity and air.
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