ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वमे॒तानि॑ दि॒वि रो॑च॒नान्य॒ग्निश्च॑ सोम॒ सक्र॑तू अधत्तम्। यु॒वं सिन्धूँ॑र॒भिश॑स्तेरव॒द्यादग्नी॑षोमा॒वमु॑ञ्चतं गृभी॒तान् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । ए॒तानि॑ । दि॒वि । रो॒च॒नानि॑ । अ॒ग्निः । च॒ । सो॒म॒ । सक्र॑तू॒ इति॒ सऽक्र॑तू । अ॒ध॒त्त॒म् । यु॒वम् । सिन्धू॑न् । अ॒भिऽश॑स्तेः । अ॒व॒द्यात् । अग्नी॑षोमौ । अमु॑ञ्चतम् । गृ॒भी॒तान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवमेतानि दिवि रोचनान्यग्निश्च सोम सक्रतू अधत्तम्। युवं सिन्धूँरभिशस्तेरवद्यादग्नीषोमावमुञ्चतं गृभीतान् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। एतानि। दिवि। रोचनानि। अग्निः। च। सोम। सक्रतू इति सऽक्रतू। अधत्तम्। युवम्। सिन्धून्। अभिऽशस्तेः। अवद्यात्। अग्नीषोमौ। अमुञ्चतम्। गृभीतान् ॥ १.९३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
युवमेतौ सक्रतू अग्निः सोम च सोमश्च यानि दिवि रोचनानि तारासमूहे प्रकाशनानि सन्त्येतान्यधत्तं धरतः युवं यौ सिन्धूनधत्तं तान् गृभीतान्सिंधूस्तावग्नीषोमाववद्यादभिशस्तेर्गर्ह्यादभितो रमणनिरोधकाद्धेतोरमुञ्चतं वर्षणनिमित्तेन तद्गृहीतमम्भः पृथिव्यां पातयतमिति यावत् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(युवम्) एतौ (एतानि) प्रत्यक्षाणि (दिवि) सूर्यप्रकाशे (रोचनानि) तेजांसि (अग्निः) विद्युत् (च) सर्वेषां लोकानां समुच्चये (सोम) बहुसुखप्रसावको वायुः (सक्रतू) समानक्रियौ (अधत्तम्) धत्तो धारयतः (युवम्) एतौ (सिन्धून्) समुद्रादीन् (अभिशस्तेः) अभितो हिंसकात् (अवद्यात्) निन्दितात् (अग्नीषोमौ) (अमुञ्चतम्) मुञ्चतो मोचयतो वा (गृभीतान्) गृहीतान् लोकान्। अत्र गृहधातोर्हस्य भादेशः ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्वायुविद्युतावेव सर्वलोकसुखधारणादिव्यवहारे हेतू भवत इति बोध्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(युवम्) ये (सक्रतू) एकसा काम देनेवाले दो अर्थात् (अग्निः) बिजुली (च) और (सोम) बहुत सुख को उत्पन्न करनेहारा पवन (दिवि) तारागण में जो (रोचनानि) प्रकाश है (एतानि) इनको (अधत्तम्) धारण करते हैं (युवम्) ये दोनों (सिन्धूम्) समुद्रों को धारण करते अर्थात् उनके जल को सोखते हैं उन (गृभीतान्) सोखे हुए नदी, नद समुद्रों को वे (अग्नीषोमा) बिजुली और पवन (अवद्यात्) निन्दित (अभिशस्तेः) उनके प्रवाहरूप रमण को रोकनेहारे हेतु से (अमुञ्चतम्) छोड़ते हैं अर्थात् वर्षा के निमित्त से उनके लिये हुए जल को पृथिवी पर छोड़ते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को जानना चाहिये कि पवन और बिजुली ये ही दोनों सबलोकों के सुख के धारण आदि व्यवहार के कारण हैं ॥ ५ ॥
विषय
अवद्य अभिशस्ति से मुक्ति
पदार्थ
१. (अग्निः च सोम) = प्राण और अपान ! (युवम्) = आप (सक्रतू) = उत्तम कर्मोंवाले होकर, अर्थात् ठीक प्रकार से शरीर में कार्य करते हुए (एतानि) = इन (रोचनानि) = ज्ञान के नक्षत्रों को (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (अधत्तम्) = धारण करते हो । प्राणसाधना के द्वारा वीर्य का रक्षण होकर ज्ञानाग्नि दीप्त होती है । ये वीर्यकण ही तो ज्ञानाग्नि के ईंधन बनते हैं । इस ज्ञानाग्नि की दीप्ति से मस्तिष्क विविध विज्ञानों से चमक उठता है । २. हे (अग्नीषोमौ) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप ही (गृभीतान् सिन्धून्) = वासनाओं से गृहीत रेतः कणों को (अवद्यात्) = निन्दनीय (अभिशस्तेः) = हिंसन से (अमुञ्चतम्) = मुक्त करते हो । 'स्यन्दत इति सिन्धवः' प्रवाहवाले होने से वहाँ रेतः कणों के लिए 'सिन्धु' शब्द का प्रयोग है । जब ये वासनाओं से गृहीत होते हैं तब इनका विनाश हो जाता हैं यह विनाश निन्दनीय तो होता ही है । इन रेतः कणों को इस निन्दनीय विनाश से प्राणापान ही मुक्त कराते हैं । यह प्राणसाधना वासना को विनष्ट करके रेतः कणों का रक्षण करती है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना वासना - विनाश के द्वारा रेतः कणों का रक्षण करती है और इन रेतः कणों को ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाकर हमारे मस्तिष्कों को ज्ञानदीप्त बनाती है ।
विषय
दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।
भावार्थ
( सक्रतू ) समान एक काल और एक देश में क्रियाशील होकर जिस प्रकार अग्नि और सोम, प्रकाश और वायु दोनों (दिवि) आकाश या सूर्य के प्रकाश में ( रोचनानि धत्तः ) नाना रुचिकर कार्यों को धारण करते हैं और ( सिन्धून् ) जलप्रवाहों को वृष्टि रूप से मेघ में से मुक्त कर देते हैं, वर्षा देते हैं उसी प्रकार उत्तम विद्वान् शिक्षक (अग्ने) और हे ( सोम ) शम आदि के शिक्षक आचार्य तुम दोनों ( दिवि ) ज्ञान के आधार पर ( एतानि रोचनानि ) इन नाना रुचिकर विज्ञानों को (सुक्रतू) समान क्रिया और प्रज्ञा वाले होकर ( अधत्तम् ) तुम दोनों को धारण करो । ( युवं ) तुम दोनों ( गृभीतान् सिन्धून् इव ) मेघ में स्थित जलों के समान ( गृभीतान् ) बन्धन में बंधे ( सिंधून् ) प्राण वाले प्राणियों को (अभिशस्तेः) निन्दा योग्य पीड़ा और ( अवद्यात् ) गर्हणीय पाप बन्धन से ( अमुञ्चतम्) मुक्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी हे जाणले पाहिजे की वायू व विद्युत हे दोन्ही सर्व लोकांच्या सुखाचे धारण इत्यादी व्यवहाराचे कारण असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni and Soma, you two, electric energy and air of equal power and joint function, hold and sustain these wondrous lights of the stars in heaven. Agni and Soma, you two release the rivers and seas of waters held up above and save them from disagreeable imprecations below.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are Agni and Soma is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
These two Agni ( Electricity) and Soma-air that cause happiness acting together sustain these constellations in the sky. They liberate the rivers and oceans from the harmful collection of water restraining it uselessly, by taking it above and causing it to rain.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्निः) विद्युत् = Electricity (सोमः) बहुसुखप्रसाधको वायुः = Air that causes much happiness. (अभिशस्तेः) अभितो हिंसकात् = Harmful or destructive.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that electricity and air are the sustainers of the world and sources of happiness.
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