ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो अ॒ग्नीषोमा॑ ह॒विषा॑ सप॒र्याद्दे॑व॒द्रीचा॒ मन॑सा॒ यो घृ॒तेन॑। तस्य॑ व्र॒तं र॑क्षतं पा॒तमंह॑सो वि॒शे जना॑य॒ महि॒ शर्म॑ यच्छतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । अ॒ग्नीषोमा॑ । ह॒विषा॑ । स॒प॒र्यात् । दे॒व॒द्रीचा॑ । मन॑सा । यः । घृ॒तेन॑ । तस्य॑ । व्र॒तम् । र॒क्ष॒त॒म् । पा॒तम् । अंह॑सः । वि॒शे । जना॑य । महि॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अग्नीषोमा हविषा सपर्याद्देवद्रीचा मनसा यो घृतेन। तस्य व्रतं रक्षतं पातमंहसो विशे जनाय महि शर्म यच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। अग्नीषोमा। हविषा। सपर्यात्। देवद्रीचा। मनसा। यः। घृतेन। तस्य। व्रतम्। रक्षतम्। पातम्। अंहसः। विशे। जनाय। महि। शर्म। यच्छतम् ॥ १.९३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
एवमेतौ संप्रयुक्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यो देवद्रीचा मनसा घृतेन हविषाऽग्नीषोमा सपर्याद्यश्चैतद्गुणान् विजानीयात् तस्य द्वयस्य व्रतमिमौ रक्षतमंहसः पातं विशे जनाय महि शर्म यच्छतम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यः) विद्वान् मनुष्यः (अग्नीषोमा) वाय्वग्नी (हविषा) सुसंस्कृतेन हविषा शोधितौ (सपर्यात्) सेवेत (देवद्रीचा) देवान्विदुषोऽञ्चता सत्कारिणा। विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतौ वप्रत्यये। अ० ६। ३। ९२। अनेन देवशब्दस्य टेरद्रिरादेशः। (मनसा) स्वान्तेन (यः) क्रियाकारी मानवः (घृतेन) आज्येनोदकेन वा (तस्य) (व्रतम्) सत्यभाषणादिशीलम् (रक्षतम्) रक्षतः (पातम्) पालयतः (अंहसः) क्षुज्ज्वरादिरोगात् (विशे) प्रजायै (जनाय) सेवकाय जीवाय (महि) महत्तमं पूजनीयम् (शर्म) सुखं गृहं वा (यच्छतम्) दत्तः ॥ ८ ॥
भावार्थः
यो मनुष्योऽग्निहोत्रादिकर्मणा वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारा पदार्थान् पवित्रयति स प्राणिनः सुखयति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
ऐसे उत्तमता से काम में लाये हुए ये दोनों क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो विद्वान् मनुष्य (देवद्रीचा) उत्तम विद्वानों का सत्कार करते हुए (मनसा) मन से वा (घृतेन) घी और जल तथा (हविषा) अच्छे संस्कार किये हुए हवि से (अग्निषोमा) वायु और अग्नि को (सपर्यात्) सेवे और (यः) जो क्रिया करनेवाला मनुष्य इनके गुणों को जाने (तस्य) उन दोनों के (व्रतम्) सत्यभाषण आदि शील की ये दोनों (रक्षतम्) रक्षा करते (अंहसः) क्षुधा और ज्वर आदि रोग से (पातम्) नष्ट होने से बचाते (विशे) प्रजा और (जनाय) सेवक जन के लिये (महि) अत्यन्त प्रशंसा करने योग्य (शर्म्म) सुख वा घर को (यच्छतम्) देते हैं ॥ ८ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्निहोत्र आदि काम से वायु और वर्षा की शुद्धि द्वारा सब वस्तुओं को पवित्र करता है, वह सब प्राणियों को सुख देता है ॥ ८ ॥
विषय
महनीय सुख की प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (अग्नीषोमा) = प्राणापानो ! (यः) = जो भी व्यक्ति (हविषा) = हविरूप भोजन के द्वारा - यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (सपर्यति) = आपका पूजन करता है और जो (देवद्रीचा) = [देवं अञ्चति] प्रभु - प्रवण - प्रभु की ओर जानेवाले (मनसा) = मन से आपका पूजन करता है, (यः) = जो (घृतेन) = मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति से आपका पूजन करता है (तस्य) = उसके (व्रतं रक्षतम्) = व्रत का आप रक्षण करते हैं । प्राणापान की साधना का सर्वप्रथम परिणाम यह है कि [क] भोजन भी यज्ञ का रूप धारण कर लेता है, [ख] अगला परिणाम चित्तवृत्ति का प्रभु = प्रवण होना है, [ग] तीसरा परिणाम मलों का क्षय और [घ] चौथा परिणाम ज्ञानदीप्ति है । इन परिणामों के होने पर लगता है कि इस व्यक्ति ने प्राणसाधना की है । २. ये प्राणापान अपने उपासक को (अंहसः) = पाप से (पातम्) = बचाते हैं । यह साधक पापवृत्तिवाला नहीं रहता । वस्तुतः बहिर्मुख न रहकर यह अन्तर्मुखवाला बनता है और प्रभु में प्रवेशवाला होता है, तब इसकी सब शक्तियों का खूब विकास होता है । इस (विशे) = प्रभु में प्रवेश करनेवाले (जनाय) = शक्तियों के प्रादुर्भाववाले व्यक्ति के लिए (महि शर्म) = महनीय व महान् सुख को (यच्छतम्) = आप देते हो ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणापान की साधना साधक को पाप से बचाकर महनीय सुख प्राप्त कराती है ।
विषय
दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष ( हविषा ) उत्तम संस्कृत हवि अर्थात् चरु से ( अग्नीषोमा ) अग्नि और वायु दोनों को ( सपर्यात् ) परिचर्या करता है अर्थात् उनमें उत्तम पदार्थ की आहुति करता है और ( यः ) जो ( देवद्रीची ) परमेश्वर और विद्वानों के सत्कार करने वाले ( मनसा ) चित्त से युक्त होकर (घृतेन) घृत से और विद्वानों की अर्ध्य पाद्य, आचमनीय आदि जलों से ( सपर्यात् ) उनका सत्कार करता है वे दोनों (तस्य) उसके ( व्रतं ) सत्य भाषण, तप, स्वाध्याय आदि नित्य कर्मों का ( रक्षतम् ) पालन करते हैं। और वे दोनों उसको ( अंहसः पातम् ) ज्वरादि दुःखों से बचाते और ( विशे जनाय ) प्रजाजन के हित के लिये ( महि शर्म ) बड़ा सुख ( यच्छतम् ) प्रदान करते हैं । इसी प्रकार अग्रणी, विद्वान् राजा दोनों को जो अन्नादि द्वारा आदर सत्कार करे और विद्वानों के प्रति सत्कार और आदरवान् चित्त से और ( घृतेन ) जलादि से सत्कार करते व उसके नियमों का पालन करते उसे पाप कर्मों से बचाते प्रजाजन को शासन और शास्त्रानुशासन द्वारा बड़ा सुख प्रदान करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस अग्निहोत्र इत्यादी कार्य करून वायू व वृष्टीच्या शुद्धीद्वारे सर्व वस्तूंना पवित्र करतो तो सर्व प्राण्यांना सुख देतो. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whoever is dedicated to Agni and Soma, fire and wind, and with an honest mind offers homage to them with ghrta and other holy materials, Agni and Soma protect and support his vows of piety for life, save him from sin, and give the citizens, people high and low all, great and noble peace, comfort and joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do these Agni and Soma (fire and air) do when used "properly is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Fire and air protect the non-violent sacrifice and save an active person from hunger and fever etc. who serves: or utilises them properly by putting Ghee (clarified butter) and purified oblations with a mind devoted to the enlightened truthful persons and who knows well their properties. They help in saving his vows of truthfulness etc.(by keeping him healthy).They grant extreme happiness to the people and their attendants.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अंहसः) क्षुज्ज्वरादिरोगात् = From hunger and diseases like fever etc. (देवद्रीचा) देवान् विदुषः अञ्चतासत्कारिणा = Honouring the enlightened persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The man who purifies all objects by purifying air and rainy water through the performance of the Agni hotra etc. makes all beings happy.
Translator's Notes
अञ्चु गतिपूजनयोः अत्र पूजासत्कारार्थ: The word अहं is used here not for sin but hunger ard disease. It is derived from अमेहु क् च (उणा.४.२१४) । अम-गतौ अमन्ति प्राप्नुवन्ति दुःख येन तत् = That which causes suffering, so it may be used for hunger and diseases.
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