ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 12
ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्नी॑षोमा पिपृ॒तमर्व॑तो न॒ आ प्या॑यन्तामु॒स्रिया॑ हव्य॒सूद॑:। अ॒स्मे बला॑नि म॒घव॑त्सु धत्तं कृणु॒तं नो॑ अध्व॒रं श्रु॑ष्टि॒मन्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्नी॑षोमा । पि॒पृ॒तम् । अर्व॑तः । नः॒ । आ । प्या॒य॒न्ता॒म् । उ॒स्रियाः॑ । ह॒व्य॒ऽसू॒दः॑ । अ॒स्मे इति॑ । बला॑नि । म॒घव॑त्ऽसु । ध॒त्त॒म् । कृ॒णु॒तम् । नः॒ । अ॒ध्व॒रम् । श्रु॒ष्टि॒ऽमन्त॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नीषोमा पिपृतमर्वतो न आ प्यायन्तामुस्रिया हव्यसूद:। अस्मे बलानि मघवत्सु धत्तं कृणुतं नो अध्वरं श्रुष्टिमन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नीषोमा। पिपृतम्। अर्वतः। नः। आ। प्यायन्ताम्। उस्रियाः। हव्यऽसूदः। अस्मे इति। बलानि। मघवत्ऽसु। धत्तम्। कृणुतम्। नः। अध्वरम्। श्रुष्टिऽमन्तम् ॥ १.९३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे राजप्रजाजनौ युवामग्नीषोमेव नोऽस्माकमर्वतः पिपृतं यथा हव्यसूद उस्रिया आप्यायन्तां तथा नोऽस्माकं श्रुष्टिमन्तमध्वरं मघवत्सु कृणुतमस्मे बलानि धत्तम् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(अग्नीषोमा) पालनहेतू अग्निवायू इव (पिपृतम्) प्रपिपूर्त्तम् (अर्वतः) अश्वान् (नः) अस्माकम् (आ) (प्यायन्ताम्) पुष्टा भवन्तु (उस्रियाः) गावः (हव्यसूदः) हव्यानि दुग्धादीनि क्षरन्ति ताः (अस्मे) अस्मभ्यम् (बलानि) (मघवत्सु) प्रशस्तपूज्यधनयुक्तेषु स्थानेषु व्यवहारेषु विद्वत्सु वा (धत्तम्) धरतम् (कृणुतम्) कुरुतम् (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) व्यवहारयज्ञम् (श्रुष्टिमन्तम्) शीघ्रं बहुसुखहेतुम् ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुविद्युद्भ्यां विना कस्यचिद्बलपुष्टी जायेते तस्मादेते सुविचारेण कार्य्येषूपयोजनीये ॥ १२ ॥अत्र वायुविद्युतोर्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति षष्ठाध्यायस्यैकोनत्रिंशत्तमो वर्गः। प्रथममण्डले चतुर्दशोऽनुवाकस्त्रयोनवतितमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे राज प्रजा के पुरुषो ! तुम (अग्नीषोमा) पालन के हेतु अग्नि और पवन के समान (नः) हम लोगों के (अर्वतः) घोड़ों को (पिपृतम्) पालो, जैसे (हव्यसूदः) दूध, दही आदि पदार्थों की देनेवाली (उस्रियाः) गौ (आ, प्यायन्ताम्) पुष्ट हों वैसे (नः) हम लोगों के (श्रुष्टिमन्तम्) शीघ्र बहुत सुख के हेतु (अध्वरम्) व्यवहाररूपी यज्ञ को (मघवत्सु) प्रशंसित धनयुक्त स्थान, व्यवहार वा विद्वानों में (कृणुतम्) प्रकट करो, (अस्मे) हम लोगों के लिये (बलानि) बलों को (धत्तम्) धारण करो ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन और बिजुली के विना किसी की बल और पुष्टि नहीं होती, इससे इनको अच्छे विचार से कामों में लाना चाहिये ॥ १२ ॥इस सूक्त में पवन और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह छठे अध्याय का २९ उनतीसवाँ वर्ग और प्रथम मण्डल का १४ चौदहवाँ अनुवाक तथा ९३ त्रानवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
विषय
इन्द्रियाश्वों का पालन
पदार्थ
१. हे (अग्नीषोमा) = प्राणापानो ! (नः) = हमारे (अर्वतः) = इन्द्रियरूप अश्वों को (पिपृतम्) = पालित करो । हमारे इन्द्रियरूप अश्व आपकी साधना से प्रवृद्ध शक्तिवाले हों । ये आसुर वृत्तियों के आक्रमण से आक्रान्त न हों । २. (हव्यसूदः) = [हव्यं सूदन्ते] हवि के योग्य उत्तम दुग्ध देनेवाली (उस्त्रियाः) = गौएँ (आप्यायन्ताम्) = हमारी शक्तियों का वर्धन करें । वस्तुतः प्राणसाधना के साथ गो - दुग्धादि सात्त्विक पदार्थों का प्रयोग भी आवश्यक है । ३. प्राणसाधना के साथ गोदुग्धादि सात्विक पदार्थों का प्रयोग करने पर हमारी प्रवृत्ति यज्ञीय बनती है । (मघवत्स) = [मघ ऐश्वर्य व यज्ञ] ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले (अस्मे) = हममें (बलानि) = शक्तियों को (धत्तम्) = धारण करो । प्राणसाधना से यज्ञीय वृत्ति तो बनती ही है । यज्ञीय वृत्ति होने पर शक्तियाँ सुरक्षित रहती हैं । ४. इस प्रकार शक्तियों के रक्षण के द्वारा (नः अध्वरम्) = हमारे जीवनयज्ञ को (श्रुष्टिमन्तम्) = सुखवाला (कृणुतम्) = कीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती हैं । इस साधना में गोदुग्धादि सात्त्विक पदार्थों का प्रयोग आवश्यक है । इससे हमारी वृत्ति भी यज्ञशील बनी रहती है और हमारा जीवन सुखी होता है ।
विशेष / सूचना
विशेष = सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से होता है कि हम अपने जीवनों में अग्नि व सोम का समन्वय करके रस पैदा करें [१] । सुवीर्य, सुज्ञान व सुकर्मवाले हों [२] । सात्त्विक अन्न व घृत के सेवन से हम विकास, शक्ति व पूर्ण जीवन को प्राप्त करें [३] । प्राणसाधना से ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति का वर्धन होकर आत्मसाक्षात्कार होता है [४] । इस साधना से हम रेतः कणों को निन्दनीय हिंसा से बचाएँ [५] । प्राण ज्ञान का वर्धक हो और अपान स्वास्थ्य का [६] | भोजन को भी हम यज्ञ का रूप दें [७] । प्राणसाधना से हमें महनीय सुख प्राप्त हो [८] । हम देव बनेंगे तो प्राणशक्ति का वर्धन होगा ही [९] । प्राणापान की शक्ति से ज्ञान व स्वास्थ्य की दीप्ति प्राप्त होगी [१०] । हमारे जीवन में प्राणापान का मेल बना रहे [११], ये हमारी इन्द्रियों का रक्षण करें [१२] । प्राणसाधना से वासनाओं का विनाश करके हम 'कुत्स' बनते हैं [कुथ हिंसायाम्] । हमारी शक्ति स्थिर रहती है, अतः 'आङ्गिरस' बनते हैं । 'कुत्स आङ्गिरस' अगले सूक्तों में प्रभुस्तवन करते हुए कहता है कि हम आपकी मित्रता में हिंसित नहीं होते -
विषय
दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।
भावार्थ
( अग्नीषोमा ) अग्नि और जल या अग्नि और वायु के समान राष्ट्र का शिक्षण और पालन करने वाले आप दोनों ( नः ) हमारे ( अर्वतः ) अश्वों को ( पिपृतम् ) खूब पालन करो । और ( नः ) हमारे ( हव्यसूदः ) दुग्ध आदि खाद्य पदार्थों को देने वाली ( उस्त्रियाः ) गौवों को और अन्नों उत्पादक भूमियों को ( आप्यायन्ताम् ) खूब हृष्ट पुष्ट और जल से सेचित करो । ( अस्मे ) हमारे ( मघवत्सु ) धनाढ्य पुरुषों के आश्रय पर ( बलानि ) राष्ट्र के रक्षक सैन्यों को ( धत्तम् ) पालन करो। और ( नः अध्वरम् ) हमारे प्रजा पालन रूप यज्ञ को ( श्रुष्टिमन्तम् ) खूब अन्न-समृद्धि और सुख सामग्री से युक्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायू व विद्युतशिवाय कुणाचे बळ वाढत नाही व पुष्टी होत नाही. त्यामुळे त्यांचा विचारपूर्वक उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni and Soma, yajnic leaders of the nation, feed and empower our horses, modes of travel and transport. Nourish and upbreed our cows for the gift of holy milk and ghrta for our yajnas. Invest our economic and governing powers with strength and generosity and universalise our yajnic endeavours with instant response and rich production for all of us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do they (Agni and Soma) is taught further in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O officers and men of the State. You who are like fire and air cherish our horses and may our cows which yield much milk be well nourished. Make soon our non-violent Yajna source of happiness among wealthy and noble persons and cause our holy rites to be successful. Grant us strength to perform religious rites.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(उस्त्रियाः) गावः = Cows. (हव्यसूद:) हव्यानि दुग्धादीनि क्षरन्ति ताः = Which yield milk abundantly. (श्रुष्टिमन्तम्) शीघ्रं बहुसुखहेतुम् = Soon the source of much happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Without air and electricity, none can get strength and nourishment. Therefore they should be applied well in various works thoughtfully.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes of air and fire in this hymn. Here ends the commentary on the 93rd hymn of the Rigveda and fourteenth Anuvaka.
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