ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 12
प्र शोशु॑चत्या उ॒षसो॒ न के॒तुर॑सि॒न्वा ते॑ वर्ततामिन्द्र हे॒तिः । अश्मे॑व विध्य दि॒व आ सृ॑जा॒नस्तपि॑ष्ठेन॒ हेष॑सा॒ द्रोघ॑मित्रान् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । शोशु॑चत्याः । उ॒षसः॑ । न । के॒तुः । अ॒सि॒न्वा । ते॒ । व॒र्त॒ता॒म् । इ॒न्द्र॒ । हे॒तिः । अश्मा॑ऽइव । वि॒ध्य॒ । दि॒वः । आ । सृ॒जा॒नः । तपि॑ष्ठेन । हेष॑सा । द्रोघ॑ऽमित्रान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र शोशुचत्या उषसो न केतुरसिन्वा ते वर्ततामिन्द्र हेतिः । अश्मेव विध्य दिव आ सृजानस्तपिष्ठेन हेषसा द्रोघमित्रान् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । शोशुचत्याः । उषसः । न । केतुः । असिन्वा । ते । वर्तताम् । इन्द्र । हेतिः । अश्माऽइव । विध्य । दिवः । आ । सृजानः । तपिष्ठेन । हेषसा । द्रोघऽमित्रान् ॥ १०.८९.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शोशुचत्याः-उषसः) दीप्यमान विद्युत् की (केतुः-न) तरङ्ग के समान (ते-असिन्वा) तेरी न रुकनेवाली (हेतिः-वर्तताम्) वज्रशक्ति दुष्टों के प्रति चले (द्रोघमित्रान्) जो मित्रों के प्रति द्रोह करते हैं, उनको-उन पर (दिवः-आसृजानः) आकाश से छोड़े (अश्मा-इव) पाषाणों के समान (तपिष्ठेन हेषसा विध्य) अत्यन्त तापक वज्रघोष से वीन्ध-ताड़ित कर ॥१२॥
भावार्थ
मित्रों से द्रोह करनेवालों के ऊपर ज्वलित विद्युत् की तरङ्ग के समान परमात्मा की वज्रशक्ति आकाश से पाषाणवर्षा करती हुई सी गिर कर अपने ताप से ताड़ित करती है ॥१२॥
विषय
ज्ञान प्रकाश रूप वज्र
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब आसुर वृत्तियों के संहार करनेवाले प्रभो ! तेरी (केतुः) = ज्ञानरश्मियाँ (शोशुचत्या उषसः) = वे चारों ओर दीप्ति को फैलाती हुई उषा के समान हैं। उषा के होते ही जैसे अन्धकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभो! आपकी प्रेरणा हृदयान्धकार को नष्ट करनेवाली होती है। (ते हेतिः) = तेरा यह ज्ञानवज्र (असिन्) = भेदनरहित होकर (प्रवर्तताम्) = प्रवृत्त हो। इस ज्ञानवज्र का प्रभाव अवश्य होता ही है। [२] (दिवः) = ज्ञान के प्रकाशों को (आसृजान:) = समन्तात् पैदा करता हुआ तू (अश्मा इव) = पत्थर की तरह (विध्य) = इन दुरेव पुरुषों को अशुभ आचरणवाले व्यक्तियों को (विध्य) = विद्ध करनेवाला हो। जैसे पत्थर से एक दुष्ट पुरुष का नाश कर दिया जाता है [stoned to death], इसी प्रकार ज्ञान के द्वारा उसकी दुष्टता को समाप्त करके भी दुष्ट पुरुष का अन्त कर दिया जाता है। [३] तपिष्ठेन = अत्यन्त दीप्त हेषसा [ हेत्या] = शब्दमय वज्र से ज्ञानात्मक वज्र से द्रोघमित्रान् = मित्र द्रोहियों को भी तू बींधनेवाला हो। ज्ञान के द्वारा उनकी मित्रद्रोह की अशुभ भावनाओं को तू विनष्ट कर ।
भावार्थ
भावार्थ- दुष्ट को पत्थर से मारकर नष्ट करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि ज्ञान प्रसार द्वारा उसकी दुष्टता को दूर कर दिया जाए।
विषय
वीर योद्धा के उत्तम शस्त्रवत् प्रभु की शक्तियों का आलंकारिक वर्णन।
भावार्थ
हे (इन्द्र) शत्रुओं का नाश करने वाले (ते) तेरा (हेतिः) शत्रुहनन करने का साधन-शस्त्र (असिन्वा) कहीं न बद्ध, खुला, दूर तक जाने वाला हो। उसकी गति कहीं रुकी न रहे। वह (शोशुचत्याः उषसः) चमकने वाली उषा के (केतुः न) रश्मि के तुल्य दूर तक प्रकाश करने वाला हो। (दिवः आ सृजानः अश्मा) आकाश से प्रकट होने वाली बिजली की तरह तू (आ सृजानः) चारों ओर शस्त्रास्त्रों का विसर्जन करता हुआ (तपिष्ठेन) अति तापकारी कष्टदायक, (हेषसा) भयंकर गड़गड़ाहट का शब्द करने वाले अस्त्र से (द्रोघ-मित्रान्) मित्र का द्रोह करने वाले दुष्ट जनों को (विध्य) ताड़ना कर उनको उससे दण्डित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शोशुचत्याः-उषसः केतुः-न) दीप्यमाना या उषसो विद्युतस्तरङ्गेणेव (ते-असिन्वा हेतिः-वर्तताम्) तवाप्रतिबद्धया “असिन्वम्-अप्रतिबद्धम्” [ऋ० ५।३२।८ दयानन्दः] वज्रम् “हेतिः-वज्रनाम” [निघं० २।३२] दुष्टान् प्रति वर्तताम् (द्रोघमित्रान्) ये मित्राणि द्रुह्यन्ति तान् (दिवः-आसृजानः अश्मा-इव) आकाशात्-आक्षिप्यमाणाः पाषाणा इव (तपिष्ठेन हेषसा विध्य) अत्यन्त तापकारिणा वज्रघोषेण ताडय ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the blazing flames of dawn dispelling the dark, let your boundless thunderbolt strike. With that blazing thunder, like a shot from heaven pierce the forces of hate and enmity.
मराठी (1)
भावार्थ
मित्रांशी द्रोह करणाऱ्यावर ज्वलित विद्युतच्या तरंगाप्रमाणे परमात्म्याची वज्रशक्ती आकाशातून पाषाण वर्षा करत असल्यासारखी आपल्या तापाने पीडित करते. ॥१२॥
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