ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
आपा॑न्तमन्युस्तृ॒पल॑प्रभर्मा॒ धुनि॒: शिमी॑वा॒ञ्छरु॑माँ ऋजी॒षी । सोमो॒ विश्वा॑न्यत॒सा वना॑नि॒ नार्वागिन्द्रं॑ प्रति॒माना॑नि देभुः ॥
स्वर सहित पद पाठआपा॑न्तऽमन्युः । तृ॒पल॑ऽप्रभर्मा । धुनिः॑ । शिमी॑ऽवान् । शरु॑ऽमान् । ऋ॒जी॒षी । सोमः॑ । विश्वा॑नि । अ॒त॒सा । वना॑नि । न । अ॒र्वाक् । इन्द्र॑म् । प्र॒ति॒ऽमाना॑नि । दे॒भुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपान्तमन्युस्तृपलप्रभर्मा धुनि: शिमीवाञ्छरुमाँ ऋजीषी । सोमो विश्वान्यतसा वनानि नार्वागिन्द्रं प्रतिमानानि देभुः ॥
स्वर रहित पद पाठआपान्तऽमन्युः । तृपलऽप्रभर्मा । धुनिः । शिमीऽवान् । शरुऽमान् । ऋजीषी । सोमः । विश्वानि । अतसा । वनानि । न । अर्वाक् । इन्द्रम् । प्रतिऽमानानि । देभुः ॥ १०.८९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आपान्तमन्युः) स्वरूप से तेजस्वी (तृपलप्रभर्मा) तुरन्त प्रहारकर्त्ता (धुनिः) विचलित करनेवाला (शिमीवान्) दुःख के अन्त करने के कर्मवाला (शरुमान्) दुष्ट के लिये हिंसकशस्त्रवाला (ऋजीषी) सरल स्वभाववालों का प्रेरक (सोमः) प्रेरणशक्तिपूर्ण (विश्वानि) सब (अतसा वनानि) निरन्तर गतिवाले किरणसमूहों को या जलों को (प्रतिमानसं) प्रतिमान करनेवाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवाले परमात्मा को (न देभुः) नहीं दबा सकते हैं, किन्तु उसके आधीन होकर नष्ट हो जाते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा स्वरूपतः तेजस्वी, शीघ्रप्रहारकर्त्ता, दुःख का शमन करनेवाला, सरल सत्य प्रवृत्तिवालों का प्रेरक है, वह विरोधियों से दबनेवाला नहीं, किन्तु विरोधी उसके अधीन होकर नष्ट हो जाते है, ऐसा परमात्मा शरण्य है ॥५॥
विषय
शत्रुओं से आक्रान्त न होना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार जीवन बनाने के लिये सोमरक्षण ही साधन है। सो सोम के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि (सोमः) = यह सोम (आपान्तमन्युः) = [आ-पान्त - मन्युः ] सर्वतः ज्ञान का रक्षण करनेवाला है। रक्षित हुआ हुआ सोम ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, ज्ञानाग्नि को दीप्त करने के कारण यह सोम 'आपान्तमन्यु' है । [२] (तृपलप्रभर्मा) = तृप्ति के कारणभूत पोषणवाला है । शरीर में रक्षित सोम सब अंग-प्रत्यंगों का पोषण करता है और इस प्रकार तृप्ति व प्रसन्नता के अनुभव का कारण होता है। सब पोषणों को प्राप्त कराके यह (धुनिः) = रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाला होता है। (शिमीवान्) = शान्तभाव से किये जानेवाले कर्मोंवाला है, नीरोग व सशक्त बनाकर यह सोम हमें शान्त व सक्रिय बनाता है । (शरुमान्) = यह काम-क्रोधादि वासनाओं शीर्ण करनेवाला है । (ऋजीषी) = [driving away ] सब अवाञ्छनीय तत्त्वों को दूर करनेवाला है। [२] (सोमः) = उल्लिखित गुणोंवाला यह सोम (विश्वानि वनानि) = सब उपासकों को (अतसा:) = [अत सातत्यगमने, सन् संभक्तौ] प्राप्त होनेवाला व सेवित करनेवाला होता है। प्रभु की उपासना से मनुष्य सोम का रक्षण कर पाता है। उपासना वासना को नष्ट करती है । वासना के नाश से सोम का रक्षण होता है। [३] इस प्रकार सोम का पान करनेवाले (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (अर्वाग्) = [within] इस शरीर व हृदय के अन्दर (प्रतिमानानि) = [An advessary] शत्रु (न देभुः) = हिंसित नहीं कर पाते । इसके शरीर पर रोग आधिपत्य नहीं कर पाते और इसके हृदय को वासनाएँ मलिन नहीं कर पाती ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासना के द्वारा हम सोम का रक्षण करें। यह सोम हमें रोगों व वासनारूप शत्रुओं से बचाएगा ।
विषय
दुष्ट-दण्डक, तेजस्वी, बलशाली, सर्वोत्पादक, सर्वोच्च महान् प्रभु।
भावार्थ
(आपान्त-मन्युः) जो अपने ज्ञान वा क्रोध वा तेज को चारों ओर विस्तृत करता है, (तृपल-प्रभर्मा) जो बड़े वेग से दुष्ट शत्रुओं का प्रहार करता है, (धुनिः) जो सब को कंपाता है, वह वायुवत् बलवान्, (शिमीवान्) अनेक कर्म करता है, जो (शरुमान्) नाना हिंसाकारी साधनों से सम्पन्न है (ऋजीषी) जो सब प्रजाओं को सरल, धर्म के सत्य के मार्ग से प्रेरित करता है, (सोमः) जो सबका संचालक, सर्वोत्पादक है। उस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्, तेजस्वी, दीप्तिमान् इन्द्र परमेश्वर को (विश्वानि) समस्त (प्रतिमानानि) मापक साधन भी (न देभुः) उसी प्रकार अपने से कम नहीं कर सकते जैसे (अतसा वनानि न इन्द्रम्) समस्त सूखे काष्ठ और जंगल भी तेजस्वी विद्युत् वा अग्नि को नष्ट नहीं कर सकते। भड़कती आग वा बिजली के आगे चाहे जितने लक्कड़ वा जंगल के वृक्ष हों वह उनको जला ही डालता है, एक मिनट में नष्ट कर देता है उसी प्रकार ये सब प्रतिमान, अर्थात् मपे हुए सीमित पदार्थ उस महान् असीम प्रभु का मुकाबला नहीं कर सकते। वे अल्प हैं। इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आपान्तमन्युः) आपान्तमन्युः “आपातितमन्युः [निरु० ५।१२] आपाततः स्वभावतस्तेजो यस्य सः, स्वरूपतस्तेजस्वी (तृपलप्रभर्मा) “तृप्रहारी क्षिप्रप्रहारी” [निरु० ५।१२] क्षिप्रप्रहर्ता (धुनिः) धूनयिता स्थितितश्चालयिता (शिमीवान्) कर्मवान् दुःखस्य शामयिता दुःखनिवारणे शक्तो वा (शरुमान्) दुष्टाय हिंसकशस्त्रवान् (ऋजीषी) ऋजूनां सरलस्वभावानां प्रेरयिता “ऋजीषिणम्” ऋजूनां सरलानां धार्मिकाणां जनानामीषितं शीलम्” [ऋ० ६।४२। दयानन्दः] (सोमः) प्रेरकः “षू प्रेरणे” [तुदादि०] (विश्वानि-अतसा वनानि) सर्वाणि निरन्तरं गतिमन्ति रश्मिवृन्दानि “वनं रश्मिनाम” [निघं० १।५] यद्वा जलानि “वनम्-उदकनाम” [निघं० १।१२] (प्रतिमानानि) प्रतिमानं कुर्वाणानि (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं परमात्मानम् (न देभुः) नाभिभवन्ति किन्तु तदधीने हि विनश्यन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Boundless in passion and potential, impetuous in action, mighty mover and shaker, awfully powerful, strongly armed, simple and natural, creative and inspiring like Soma, is Indra. Not all the winds and weapons of the world, not all the lights and blazes, no measures and comparisons of the finite world, can face, equal, much less exceed and overcome Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा स्वरूपाने तेजस्वी शीघ्रप्रहारकर्ता, दु:खाचे शमन करणारा, सरळ सत्य प्रवृत्तीचा प्रेरक आहे. तो विरोधी लोकांकडून दबणारा नाही तर विरोधी त्याच्या अधीन होऊन नष्ट होतात, असा परमात्मा शरण्य आहे. ॥५॥
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