ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 14
कर्हि॑ स्वि॒त्सा त॑ इन्द्र चे॒त्यास॑द॒घस्य॒ यद्भि॒नदो॒ रक्ष॒ एष॑त् । मि॒त्र॒क्रुवो॒ यच्छस॑ने॒ न गाव॑: पृथि॒व्या आ॒पृग॑मु॒या शय॑न्ते ॥
स्वर सहित पद पाठकर्हि॑ । स्वि॒त् । सा । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । चे॒त्या । अ॒स॒त् । अ॒घस्य॑ । यत् । भि॒नदः॑ । रक्षः॑ । आ॒ऽईष॑त् । मि॒त्र॒ऽक्रुवः॑ । यत् । शस॑ने । न । गावः॑ । पृ॒थि॒व्याः । आ॒ऽपृक् । अ॒मु॒या । शय॑न्ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
कर्हि स्वित्सा त इन्द्र चेत्यासदघस्य यद्भिनदो रक्ष एषत् । मित्रक्रुवो यच्छसने न गाव: पृथिव्या आपृगमुया शयन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठकर्हि । स्वित् । सा । ते । इन्द्र । चेत्या । असत् । अघस्य । यत् । भिनदः । रक्षः । आऽईषत् । मित्रऽक्रुवः । यत् । शसने । न । गावः । पृथिव्याः । आऽपृक् । अमुया । शयन्ते ॥ १०.८९.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ते) तेरी (कर्हिस्वित्) कदाचित् (सा चेत्या) वह चेतानेयोग्य प्रेरणीया शक्ति (यत्) यतः-जिससे (अघस्य रक्षः) पापी राक्षस के प्रति (एषत्-अभिनत्) आक्रमण करती है, उसे छिन्न-भिन्न कर देती है-नष्ट करती है (मित्रक्रुवः) मित्रघातक (यत्-शसने न) जैसे हिंसास्थान में (गावः) गौ आदि पशु मारे जाते हैं, (अमुया पृथिव्याः) उस शक्ति से पृथिवी के साथ (आपृक् शयन्ते) सम्यक् सम्पृक्त हुए मरे हुए सोते हैं ॥१४॥
भावार्थ
पापी राक्षस के प्रति परमात्मा की अस्त्रशक्ति जाती है, मार देती है। जैसे पापी जन के द्वारा गो आदि पशु मारे जाने से पृथिवी पर सो जाते हैं, ऐसे पापी जन मरकर पृथिवी पर सो जाते हैं ॥१४॥
विषय
पापी का अन्त
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब आसुरवृत्तियों को समाप्त करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपकी (सा) = वह (चेत्या) = ज्ञान देनेवाली, चेतानेवाली शक्ति (कर्हिस्वित्) = कब असत् प्रकट होगी ? (यद्) = जो (अघस्य) = पाप का (भिनदः) = विदारण कर देती है, जो (एषत्) = [ आ ईषत् ईष् to kill ] चारों ओर घातपात करते हुए (रक्षः) = राक्षसी वृत्तिवाले पुरुष को नष्ट कर देती है। [२] हे प्रभो ! आपकी उस शक्ति से आहत हुए-हुए (यत्) = जो (मित्रक्रुवः) = [मित्राणां क्रूरस्य कर्मणः कर्तारः सा० ] मित्रों के साथ क्रूरता से वर्तनेवाले लोग (अमुया पृथिव्या) = उस पृथिवी से (आपृक्) = संपृक्त होकर (शयन्ते) = उसी प्रकार शयन करते हैं (न) = जिस प्रकार (शसने) = वध्यस्थल में (गावः) = पशु । वध्यशाला में वध को प्राप्त पशु जैसे भूमि का आलिंगन करके शयन करते हैं, उसी प्रकार मित्रद्रोही विनष्ट हो जाते हैं। प्रभु का ज्ञानरूप वज्र इनकी मित्रद्रोह की भावना को समाप्त कर देता है। उस भावना की समाप्ति के साथ मित्रद्रोही पुरुष मित्रद्रोही नहीं रह जाता। मित्रद्रोही का विनाश हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का ज्ञानवज्र पाप को, नाशक राक्षसों को तथा मित्रद्रोहियों को समाप्त कर देता है ।
विषय
उसकी दुष्ट-दमनी शक्ति का प्रयोग।
भावार्थ
हे (इन्द्र) तेजस्वी पुरुष ! हे स्वामिन् ! शत्रुविजयिन् ! (ते) तेरी प्रसिद्ध (अधस्य चेत्या) पापी का नाश कर देने वाली शक्ति (कर्हि स्वित्) कब (असत्) प्रकट होगी ? (यत्) जिससे तू (रक्षः भिनदः) दुष्ट शत्रुओं को भेदे, (मित्र-क्रुवः) मित्रों पर क्रूरकर्म करने वालों को (आ ईषत्) सब ओर से भयभीत करे (यत्) जिससे (शसने गावः नः) हत्यास्थान में पशुओं के तुल्य वे दुष्ट जन, भी (आपृक्) मर कर (अमुया पृथिव्याः) इस पृथिवी के ऊपर (शयन्ते) पडे़ं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ते) तव (कर्हिस्वित्) कदाचित् (सा चेत्या) सा चेतयितव्या क्षेप्तव्या शक्तिः (यत्) यतः (अघस्य रक्षः-एषत् अभिनत्) पापिनम् “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” राक्षसं गच्छति भिनत्ति-नाशयति (मित्रक्रुवः) मित्रघातकाः (यत्-शसने न) यथा हिंसास्थाने (गावः) गावो गावादयः पशवो हिंस्यन्ते तथा (अमुया पृथिव्याः) अमुकया शक्त्या पृथिव्याः (आपृक् शयन्ते) आपृक्ताः समन्तात् सम्पृक्ताः खलु मृताः शेरते ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Where is that punitive power of yours, Indra, and when does it strike, the power that picks up and shatters the sinner, the criminal, and the perpetrator of evil, and struck by which the betrayers of friends, felled and dead, lie on the ground like cattle carcasses.
मराठी (1)
भावार्थ
पापी राक्षसाला परमेश्वराची अस्त्रशक्ती मारून टाकते. जसे पापी लोकांकडून गायी इत्यादी पशू मारले जातात, असेच पापी लोक पृथ्वीवरून नष्ट केले जातात. ॥१४॥
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