ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 6
न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी न धन्व॒ नान्तरि॑क्षं॒ नाद्र॑य॒: सोमो॑ अक्षाः । यद॑स्य म॒न्युर॑धिनी॒यमा॑नः शृ॒णाति॑ वी॒ळु रु॒जति॑ स्थि॒राणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । यस्य॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । न । धन्व॑ । न । अ॒न्तरि॑क्षम् । न । अद्र॑यः । सोमः॑ । अ॒क्षा॒रिति॑ । यत् । अ॒स्य॒ । म॒न्युः । अ॒धि॒ऽनी॒यमा॑नः । शृ॒णाति॑ । वी॒ळु । रु॒जति॑ । स्थि॒राणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यस्य द्यावापृथिवी न धन्व नान्तरिक्षं नाद्रय: सोमो अक्षाः । यदस्य मन्युरधिनीयमानः शृणाति वीळु रुजति स्थिराणि ॥
स्वर रहित पद पाठन । यस्य । द्यावापृथिवी इति । न । धन्व । न । अन्तरिक्षम् । न । अद्रयः । सोमः । अक्षारिति । यत् । अस्य । मन्युः । अधिऽनीयमानः । शृणाति । वीळु । रुजति । स्थिराणि ॥ १०.८९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) जिस परमात्मा के स्वरूप को (द्यावापृथिवी न) द्युलोक पृथिवीलोक व्याप नहीं सकते, नहीं प्राप्ति कर सकते (धन्व न) मेघरूप जल भी नहीं पा सकता (अन्तरिक्षं न) अन्तरिक्ष नहीं पा सकता (अद्रयः-न) पर्वत भी नहीं पा सकते (सोमः-अक्षाः) शान्त ब्राह्मण पा सकता है (यत्-अस्य मन्युः-अधिनीयमानः) इस परमात्मा का मन्यु प्रेरित हुआ (वीळु शृणाति) बलवाली वस्तुओं को नष्ट करता है (स्थिराणि रुजति) दृढ वस्तुओं को भङ्ग करता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा के स्वरूप को संसार का बड़े से बड़ा पदार्थ पा नहीं सकता, केवल शान्त ऊँचा ब्राह्मण उसे जान सकता है ॥६॥
विषय
दृढ़ शत्रुओं का भी नाश
पदार्थ
[१] (यस्य सोमः अक्षा:) = [ अश् to pervnde] जिसके जीवन में सोम, न नष्ट होकर, शरीर में ही व्याप्त होनेवाला होता है, उसे (न द्यावापृथिवी) = न द्युलोक, ना ही पृथिवीलोक, (न धन्व) = न मरुस्थल, (न अन्तरिक्षम्) = न यह जलवाष्पों से पूर्ण अन्तरिक्ष और (न अद्रयः) = न पर्वत [देभुः] हिंसित करते हैं। ['देभुः' क्रिया उपरले मन्त्र से आवृत्त होती है] । अर्थात् सोम का रक्षण होने पर सर्वत्र स्वास्थ्य ठीक रहता है । इसे मरुस्थल में गरमी नहीं लगती और पर्वतों पर ठण्डक नहीं सताती। आकाश में इसका दिल धड़कने नहीं लगता और पृथ्वी पर इसे भारीपन नहीं महसूस होता । सुरक्षित सोम इसे सर्वत्र स्वस्थ रखता है । [२] (यत्) = जब (अस्य) = इसके रक्षण से उत्पन्न होनेवाला (मन्युः) = ज्ञान (अधिनिधीयमानः) = आधिक्येन स्थापित होता है तो यह सोम रक्षक पुरुष (वीडु) = दृढ़-अत्यन्त प्रबल भी वासनारूप शत्रुओं को (शृणाति) = शीर्ण करनेवाला होता है और (स्थिराणि) = शरीर में दृढ़ मूल हुए हुए भी रोगों का (रुजति) = भंग करनेवाला होता है। यह सोम ही वह ' मन्त्र - तन्त्र - यन्त्र' है जो सब अवाञ्छनीय तत्त्वों को दूर भगा देता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से सर्वत्र स्वास्थ्य ठीक रहता है। वासनाएँ भी दूर होती हैं, रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
विषय
सब से महान् शासक प्रभु।
भावार्थ
(द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी (यस्य प्रतिमानं न अक्षास्ताम्) जिसके बराबर माप को नहीं प्राप्त करते (न धन्व) न जल (न अन्तरिक्षम्) न अन्तरिक्ष, (न अद्रयः) न पर्वत वा मेघ, वह (सोमः) समस्त जगत् का शासक और उत्पादक है। (यस्य मन्युः) जिसका ज्ञान, शासन बल, (अधिनीयमानः) सर्वोपरि विराजमान होकर (वीडु शृणाति) बड़े २ बलशालियों को नष्ट करता है और (स्थिराणि रुजति) स्थिरों को भी तोड़ डालता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य) यस्येन्द्रस्य परमात्मनः स्वरूपं (द्यावापृथिवी न) द्यावापृथिव्यौ नाश्नुवाते (धन्वं न) द्यावापृथिव्योर्मध्ये गमनशीलं मेघरूपं जलम् “धन्वतिकर्मा” [निघं २।२४] नाश्नुते (अन्तरिक्षं न) अन्तरिक्षमपि नाश्नुते (अद्रयः-न) पर्वताः खल्वपि नाश्नुवते (सोमः-अक्षाः) किन्तु शान्तो ब्राह्मणोऽश्नुते (यत्-अस्य मन्युः-अधिनीयमानः) यदाऽस्येन्द्रस्य परमात्मनो मन्युः प्रेर्यमाणः (वीळु शृणाति) बलानि बलवन्ति खल्वपि सत्त्वानि विनाशयति (स्थिराणि रुजति) दृढानि भनक्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Neither heaven and earth, nor sky, nor space, nor clouds and mountains, equal his might, creative and inspiring Soma as he is, especially when his power and passion, overwhelming all, shatters the strongest and shakes the firmest fixed.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या स्वरूपाला जगातील मोठ्यातला मोठा पदार्थ प्राप्त करू शकत नाही. केवळ शांत श्रेष्ठ ब्राह्मण त्याला जाणू शकतो. ॥६॥
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