ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 7
ज॒घान॑ वृ॒त्रं स्वधि॑ति॒र्वने॑व रु॒रोज॒ पुरो॒ अर॑द॒न्न सिन्धू॑न् । बि॒भेद॑ गि॒रिं नव॒मिन्न कु॒म्भमा गा इन्द्रो॑ अकृणुत स्व॒युग्भि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठज॒घान॑ । वृ॒त्रम् । स्वऽधि॑तिः । वना॑ऽइव । रु॒रोज॑ । पुरः॑ । अर॑दत् । न । सिन्धू॑न् । बि॒भेद॑ । गि॒रिम् । नव॑म् । इत् । न । कु॒म्भम् । आ । गाः । इन्द्रः॑ । अ॒कृ॒णु॒त॒ । स्व॒युक्ऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । बिभेद गिरिं नवमिन्न कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भि: ॥
स्वर रहित पद पाठजघान । वृत्रम् । स्वऽधितिः । वनाऽइव । रुरोज । पुरः । अरदत् । न । सिन्धून् । बिभेद । गिरिम् । नवम् । इत् । न । कुम्भम् । आ । गाः । इन्द्रः । अकृणुत । स्वयुक्ऽभिः ॥ १०.८९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वृत्रं जघान) उपासक के पाप को नष्ट कर रहा है (स्वधितिः-वना-इव) वज्र जैसे वनों को नष्ट करता है (पुरः-रुरोज) मन की वासनाओं को भग्न करता है (सिन्धून्-अरदत्-न) स्यन्दमान विषयप्रवृत्तियों को नहीं चलाता है, बाँध देता है (गिरिं बिभेद) ज्ञानप्रकाश को निगलनेवाले अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न कर देता है। (नवं कुम्भं न-इत्) नए घड़े के समान (स्वयुग्भिः-गाः-आ-अकृणुत) अपने से योग करनेवाले उपासकों के हेतु-उनके लिये वेदवाणियों को आविष्कृत करता है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा न केवल अपने उपासकों के साथ योग करता है तथा उनके पापमल और अज्ञानान्धकार को नष्ट करता है, अपितु उनके लिये वेदवाणी को प्रदान करता है ॥७॥
विषय
काम - विध्वंस
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला पुरुष (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को इस प्रकार (जघान) = नष्ट करता है, (इव) = जैसे कि (स्वधितिः) = कुल्हाड़ा (वना) = वनों को नष्ट कर डालता है। [२] इसी प्रकार यह सोमरक्षक पुरुष (पुरः रुरोज) = शत्रुओं की पुरियों का भंग करता है, न उसी प्रकार जैसे कि एक राजा पृथ्वी का विदारण करके (सिन्धून् अरदत्) = नहरों को बना डालता है। पृथ्वी का विलेखन करके जैसे नदी प्रवाह चलता है इसी प्रकार यह असुर पुरियों का विदारण करके ही तो देवगृहों का अपने में स्थापन करता है। काम अपना अधिष्ठान इन्द्रियों में बनाता है, क्रोध मन में तथा लोभ बुद्धि में । असुरों के ये तीन अधिष्ठान ही उनकी तीन पुरियाँ हैं । इनका विदारण यह सोमी करता है । [३] (गिरिम्) = यह सोमी अविद्या पर्वत को [पाँच पर्वोंवाली होने से अविद्या पर्वत है] (विभेद) = विनष्ट करता है, उसी प्रकार आसानी से (इव) = जैसे कि (इत्) = निश्चय से (नवं कुम्भम्) = अभी ताजे बने घड़े को । जो घड़ा अभी बना ही है, न सूखा है, न पका है, उसका तोड़ना जैसे कुछ कठिन नहीं, इसी प्रकार सोमी के लिये अविद्या पर्वत को तोड़ना कठिन नहीं। [४] इस अविद्या पर्वत को विदीर्ण करके (इन्द्र:) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (स्वयुग्भिः) = आत्मतत्त्व से मेलवाली प्रत्याहार द्वारा विषय व्यावृत्त इन्द्रियों से (गाः) = ज्ञान की वाणियों को (आ अकृणोत) = अपने में समन्तात् करनेवाला होता है, अर्थात् खूब ही ज्ञान का अपने में वर्धन कर पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का रक्षक वृत्र को [वासना को] नष्ट करता है, काम-क्रोध-लोभ के किलों को तोड़ देता है, अविद्या पर्वत को गिरा देता है और विषयव्यावृत्त इन्द्रियों से खूब ही ज्ञान का वर्धन करता है ।
विषय
परशु के समान महान् आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(स्वधितिः वना इव) कुठार जिस प्रकार वनों की लकड़ियों को काट गिराता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) तेजस्वी, ऐश्वर्यवान् अध्यात्म सम्पदाओं से सम्पन्न प्रभु वा आत्मा, (वृत्रम् जघान) आवरणकारी विघ्न वा अज्ञान का नाश करता है। (पुरः रुरोज) राजा जिस प्रकार शत्रु की नगरियों को तोड़ डालता है, उसी प्रकार ज्ञान और तप से ब्रह्म-तत्त्व का दर्शन करने वाला ‘इन्द्र’ (पुरः रुरोज) देह की नगरियों को भंग करता, उसका विविध प्रकार से छेदन भेदन करता है। और (सिन्धून् न अरदत्) जिस प्रकार कोई शिल्पी नाना नहरों को बनाता और भूतल पर प्रवाहित करता है उसी प्रकार प्रभु वा आत्मा देह में अनेक रस-वाहिनी नाड़ियों को बनाता है और चलाता है। और (नवम् इत् न कुम्भम्) जिस प्रकार शिल्पी नये बने घड़े पर सूची यन्त्र से अनेक चित्र विचित्र रेखाएं खोदता है उसी प्रकार प्रभु इस पृथिवी के गोले पर अनेक नदियों को खोद डालता है। और (स्वयुग्भिः) अपने से संयोग करने वाले भक्त, साधक द्रष्टाओं द्वारा (इन्द्रः गाः आ अकृणुत) वह सर्वैश्वर्य प्रभु अनेक वाणियों को उसी प्रकार प्रकट करता है जिस प्रकार विद्युत् मेघ में से अनेक जल-धाराओं को प्रकट करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वृत्रं जघान) उपासकस्य पापम् “पाप्मा वै वृत्रः” (श० १२।१।५।७) हन्ति (स्वधितिः-वना-इव) वज्रो वनानि नाशयति “स्वधितिः वज्रनाम” [निघं० २।२०] (पुरः-रुरोज) मनांसि “मन एव पुरः” [श० १०।३।५।७] मनोवासनाः भनक्ति नाशयति (सिन्धून्-अरदत्-न) स्यन्दमाना विषयप्रवृत्तीर्न चालयति-बध्नाति (गिरिं बिभेद) निगिरति ज्ञानप्रकाशं तमन्धकारं भिनत्ति (नवं कुम्भं न इत्) नवं दृढं घटमिव (स्वयुग्भिः-गाः आ अकृणुत) स्वयोक्तृभिरुपासकैः-तान्-हेतुं मत्त्वा तेभ्य इत्यर्थः, वेदवाचः-आविष्कृणोति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Destroying the demon of darkness like lightning striking the woods, Indra shatters the strongholds of evil. He breaks the clouds and mountains like a little new earthen jar, and as he sets floods of rivers aflow, so with his own waves of divine energy, he lets the streams of psychic energy and spiritual enlightenment flow for the devotee.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या उपासकांबरोबर योग करतो. त्यांचा पापमल व अज्ञानांधकार नष्ट करतो. एवढेच नव्हे तर त्यांच्यासाठी वेदवाणी प्रदान करतो. ॥७॥
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