ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 16
पु॒रूणि॒ हि त्वा॒ सव॑ना॒ जना॑नां॒ ब्रह्मा॑णि॒ मन्द॑न्गृण॒तामृषी॑णाम् । इ॒मामा॒घोष॒न्नव॑सा॒ सहू॑तिं ति॒रो विश्वाँ॒ अर्च॑तो याह्य॒र्वाङ् ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रूणि॑ । हि । त्वा॒ । सव॑ना । जना॑नाम् । ब्रह्मा॑णि । मन्द॑न् । गृ॒ण॒ताम् । ऋषी॑णाम् । इ॒माम् । आ॒ऽघोष॑न् । अव॑सा । सऽहू॑तिम् । ति॒रः । विश्वा॑न् । अर्च॑तः । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरूणि हि त्वा सवना जनानां ब्रह्माणि मन्दन्गृणतामृषीणाम् । इमामाघोषन्नवसा सहूतिं तिरो विश्वाँ अर्चतो याह्यर्वाङ् ॥
स्वर रहित पद पाठपुरूणि । हि । त्वा । सवना । जनानाम् । ब्रह्माणि । मन्दन् । गृणताम् । ऋषीणाम् । इमाम् । आऽघोषन् । अवसा । सऽहूतिम् । तिरः । विश्वान् । अर्चतः । याहि । अर्वाङ् ॥ १०.८९.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वा) हे परमात्मन् ! तुझे (जनानाम्) मनुष्यों के (पुरूणि हि) बहुत ही-सब ही (सवना) यजनकर्म, तथा (गृणताम्-ऋषीणाम्) स्तुति करनेवाले मन्त्रद्रष्टाओं के (ब्रह्माणि) मन्त्रवचनों को स्तुतिवचनों को (मन्दन्) हर्षित होता हुआ (इमां सहूतिम्) इस सहमन्त्रणा को (आघोषन्) आघोषित करता हुआ-स्वीकार करता हुआ (अवसा) रक्षणहेतु (विश्वान्-अर्चतः) सब स्तुति करनेवाले जनों को (तिरः) अन्तर्दृष्टि से (अर्वाङ् याहि) साक्षात् हो ॥१६॥
भावार्थ
परमात्मा सब होमयाजी जनों के यजनकर्मों को तथा आत्मयाजी जनों के मन्त्रवचनों स्तुतिवचनों को स्वीकार करता है। इस प्रकार सब अर्चना करनेवालों को अन्तर्दृष्टि से साक्षात् होता है ॥१६॥
विषय
यज्ञ, स्तवन व सम्मिलित प्रार्थना
पदार्थ
[१] गत मन्त्रों के अनुसार शान्त सामाजिक वातावरण में (हि) = निश्चय से (जनानाम्) = लोगों के (पुरूणि सवना) = पालन व पूरण करनेवाले यज्ञ (त्वा) = हे प्रभो ! आपको (मन्दन्) = हर्षित करते हैं । इसी प्रकार (गृणताम्) = स्तवन करते हुए (ऋषीणाम्) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों के (ब्रह्माणि) = स्तोत्र भी आपको आनन्दित करते हैं । अर्थात् शान्त वातावरण में लोग यज्ञों व प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त होते हैं । इन अपने कार्यों से वे प्रभु के प्रिय बनते हैं । [२] इस समय ये लोग (अवसा) = रक्षण के हेतु से (इमाम्) = इस (सूहितम्) = [congregetional preyes] सामूहिक प्रार्थना को मिलकर की जानेवाली प्रार्थना को (आघोषन्) = उच्चारण करते हैं। इस सम्मिलित प्रार्थना से वे अपने वातावरण को पवित्र बनाते हैं। [३] आप इन (विश्वान् अर्चतः) = सब उपासकों को (तिरः) = गुप्तरूप में (अर्वाड्) = हृदयाकाश के भीतर (याहि) = प्राप्त होइये। ये उपासक अपने हृदयों में आपके प्रकाश को देख पायें।
भावार्थ
भावार्थ - 'यज्ञ, स्तवन व सम्मिलित प्रार्थनाएँ' हमें प्रभु के प्रकाश को देखने योग्य बनाती हैं।
विषय
सर्व-स्तुत्य प्रभु।
भावार्थ
हे प्रभो ! (त्वा) तुझे (जनानां) मनुष्यों के (पुरुणि हि सवनानि) अनेक अनेक उपासना, यज्ञादि और (गृणतां ऋषीणां) स्तुति करने वाले अनेकों मन्त्रार्थ द्वष्टाओं के (पुरूणि ब्रह्माणि) अनेकानेक मन्त्रगण (त्वा मन्दन्) तुझे प्रसन्न करते, तेरी स्तुति करते हैं। वे (इमाम्) इस (स-हूतिम्) एक साथ मिलकर करने योग्य प्रार्थना को भी (अवसा) ज्ञान और प्रेम से (त्वा आघोषन्) तेरी ही स्तुति प्रकट करते हैं। हे प्रभो ! (विश्वान् अर्चतः) अर्चना, उपासना और स्तुति करने वाले समस्त जीवों को (अर्वाङ्) अति समीप, साक्षात् (अवसा) प्रेम, रक्षा, दया, प्रकाश, ज्ञानादि सहित (तिरः याहि) प्राप्त हो।
टिप्पणी
तिरः सत इति प्राप्त स्येति निरु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्वा) हे परमात्मन् ! त्वां (जनानां पुरूणि हि सवना) जनानां बहूनि यजनकर्माणि, तथा (गृणताम्-ऋषीणां ब्रह्माणि) स्तुवतां मन्त्रद्रष्टॄणां मन्त्रवचनानि स्तवनानि (मन्दन्) मोदयन्ति (इमां सहूतिम्-आघोषन्) इमां सहमन्त्रणां त्वमाघोषयन् स्वीकुर्वन् (अवसा) रक्षणहेतुना (विश्वान्-अर्चतः) सर्वान्-स्तुवतो जनान् (तिरः-अर्वाङ् याहि) अन्तर्दृष्ट्या “तिरोदधे-अन्तर्धत्ते” (निरु०) साक्षाद् भव ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May all felicitative yajnas of the people and holy songs of celebrant seers adore and exalt you. O lord, listening to this prayer and invocation, proclaiming your acceptance and pleasure, come to all the devotees in direct experience and bless them with peace and protection.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्व होमयाजी लोकांच्या यजन कर्मांना व आत्मयाजी लोकांच्या मंत्रवचन स्तुतिवचनांचा स्वीकार करतो व सर्व अर्चना करणाऱ्यांना अन्तर्दृष्टीने साक्षात् होतो. ॥१६॥
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