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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स सूर्य॒: पर्यु॒रू वरां॒स्येन्द्रो॑ ववृत्या॒द्रथ्ये॑व च॒क्रा । अति॑ष्ठन्तमप॒स्यं१॒॑ न सर्गं॑ कृ॒ष्णा तमां॑सि॒ त्विष्या॑ जघान ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । सूर्यः॑ । परि॑ । उ॒रु । वरां॑सि । आ । इन्द्रः॑ । व॒वृ॒त्या॒त् । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा । अति॑ष्ठन्तम् । अ॒प॒स्य॑म् । न । सर्ग॑म् । कृ॒ष्णा । तमां॑सि । त्विष्या॑ । ज॒घा॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स सूर्य: पर्युरू वरांस्येन्द्रो ववृत्याद्रथ्येव चक्रा । अतिष्ठन्तमपस्यं१ न सर्गं कृष्णा तमांसि त्विष्या जघान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । सूर्यः । परि । उरु । वरांसि । आ । इन्द्रः । ववृत्यात् । रथ्याऽइव । चक्रा । अतिष्ठन्तम् । अपस्यम् । न । सर्गम् । कृष्णा । तमांसि । त्विष्या । जघान ॥ १०.८९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह (सूर्यः-इन्द्रः) अच्छा प्रेरक ऐश्वर्यवान् परमात्मा (उरू वरांसि) बहुत वेष्टनवातावरणों को (रथ्या-इव चक्रा) रथसम्बन्धी चक्रों कि भाँति (परि-आ ववृत्यात्) नियम से घुमाता है, जिनमें वेष्टनवातावरण वर्तमान है (अतिष्ठन्तम्) निरन्तर चलायमान (अपस्यम्) कर्मनिमित्त (सर्गं न) सृजे हुए जगत् को भी सम्प्रति सदा घुमाता है (त्विष्या कृष्णा तमांसि जघान) दीप्तिवाले ज्ञानप्रकाश से अज्ञानान्धकारों को जीवों के अन्दर से नष्ट करता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा समस्त आकाशीय गोलों-पिण्डों के वेष्टनों-वातावरणों को घुमाता है, अपितु समस्त उत्पन्न जगत् को भी घुमाता है, जीवों के अन्दर से अज्ञानान्धकारों को नष्ट करता है, कर्मनिमित्त शरीरधारण कराता है ॥२॥

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    विषय

    सूर्यों के सूर्य प्रभु

    पदार्थ

    [१] (स) = वे प्रभु (सूर्यः) = [सुवति] सबको प्रेरित करनेवाले हैं। ये प्रभु ही (इन्द्र:) = सब शक्ति के कर्मों को करनेवाले हैं [सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य नि०] । ये (उस) = अनन्त (वरांसि) = अन्धकार निवारक तेजों को तेजोमय सूर्यादि पिण्डों को (परि आववृत्यात्) = चारों ओर गति दे रहे हैं, उसी प्रकार गति दे रहे हैं (इव) = जैसे (रथ्या चक्रा) = एक रथ के चक्रों को गति दी जाती है। [२] वे प्रभु सूर्यादि ज्योतिर्मय पिण्डों को तो गति दे ही रहे हैं, इसी प्रकार वे (अतिष्ठन्तम्) = इस कभी न रुकनेवाले (अपस्यं न) = सदा कर्ममय के समान, अर्थात् सतत क्रियाशील (सर्गम्) = सृष्टि प्रवाह को भी वे प्रभु चक्राकार गति दे रहे हैं। इस सृष्टि में वे (कृष्णा तमांसि) = अत्यन्त काले अन्धकारों को (त्विष्या) = दीप्ति से जघान नष्ट करनेवाले हैं। हृदयों में प्रभु का प्रकाश होते ही वासनाओं से जनित घना अन्धेरा समाप्त हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु विशाल ज्योतिर्मय पिण्डों को रथ-चक्रों के समान गति दे रहे हैं। सृष्टिचक्र को भी वे ही चला रहे हैं और हमारे हृदयों के वासनाजनित अन्धकार को भी वे ही अपनी दीप्ति से नष्ट करते हैं ।

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    विषय

    यन्त्रों के चालक शिल्पी के तुल्य जगत् सञ्चालक सूर्यवत् प्रभु का व

    भावार्थ

    जिस प्रकार शिल्पी, वा शिल्पकला का वेत्ता विद्वान् (रथ्या इव चक्रा) रथ के वेग से चलने वाले चक्रों को चलाता है, उसी प्रकार (सूर्यः) सूर्य के समान तेजस्वी, वा (सूर्यः = सुवीर्यः) उत्तम बलशाली (इन्द्रः) इस समस्त जगत् को धारण करने वाला परमेश्वर (उरु वरांसि) महान्, जगह २ बटे हुए तेजोमय अनेकों सूर्यो वा लोकों को (परि ववृत्यात्) चला रहा है। और (अतिष्ठन्तम्) कभी न ठहरने वाले, (अपस्यम् न) मानो सदा कर्म करने वाले, (सर्गम्) जल के समान सदा गतिशील, बनने बिगड़ने वाले सृष्टिचक्र को भी (सः सूर्यः) वही सूर्यवत् महाशक्तिशाली प्रभु (परि ववृत्यात्) सब प्रकार से चलाता है। वही सूर्यतुल्य तेजोमय प्रभु उस (सर्गम् परि) इस जगत् के चारों ओर फैले (कृष्णा तमांसि) काले, कष्टदायी अन्धकारों को (त्विष्या) तीक्ष्ण कान्ति से नष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-सूर्यः-इन्द्रः) स सु-प्रेरकः “सूर्यः स्वीर्यते वा” [निरु० १२।१४] ऐश्वर्यवान् परमात्मा (उरू वरांसि) उरूणि बहूनि वेष्टनवातावरणानि (रथ्या-इव चक्रा) रथ-सम्बन्धीनि चक्राणि-इव (परि-आ ववृत्यात्) पर्यावर्तयति नियमेन परिभ्रामयति येषु वर्तमानम् (अतिष्ठन्तम्-अपस्यं सर्गं न) निरन्तरं चलायमानं कर्मनिमित्तं सृष्टं जगच्च पर्यावर्तयति सम्प्रति (त्विष्या कृष्णा तमांसि जघान) स्वतेजसा-ज्ञानप्रकाशेन कृष्णरूपाणि तमांसि जीवात्मनामज्ञानान्धकारांश्च नाशयति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, self-refulgent cosmic Sun, greater than the greatest, he moves the worlds of existence like chariot wheels and, destroying the deepest darknesses of the world with his refulgence, keeps the dynamic universe in ceaseless flow like a particle in a wave of energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण आकाशीय गोल पिंडाच्या आवरणांना, वातावरणांना फिरवितो, एवढेच नव्हे तर संपूर्ण उत्पन्न झालेल्या जगालाही चहूंकडून फिरवितो. जीवातील अज्ञानांधकाराला नष्ट करतो. कर्मानिमित्त शरीर धारण करवितो. ॥२॥

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