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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ताविद्दो॒षा ता उ॒षसि॑ शु॒भस्पती॒ ता याम॑न्रु॒द्रव॑र्तनी । मा नो॒ मर्ता॑य रि॒पवे॑ वाजिनीवसू प॒रो रु॑द्रा॒वति॑ ख्यतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तौ । इत् । दो॒षा । तौ । उ॒षसि॑ । शु॒भः । पती॒ इति॑ । ता । याम॑न् । रु॒द्रव॑र्तनी॒ इति॑ रु॒द्रऽव॑र्तनी । मा । नः॒ । मर्ता॑य । रि॒पवे॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । प॒रः । रु॒द्रौ॒ । अति॑ । ख्य॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताविद्दोषा ता उषसि शुभस्पती ता यामन्रुद्रवर्तनी । मा नो मर्ताय रिपवे वाजिनीवसू परो रुद्रावति ख्यतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तौ । इत् । दोषा । तौ । उषसि । शुभः । पती इति । ता । यामन् । रुद्रवर्तनी इति रुद्रऽवर्तनी । मा । नः । मर्ताय । रिपवे । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । परः । रुद्रौ । अति । ख्यतम् ॥ ८.२२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (तौ, इत्, दोषा) तौ हि रात्रौ (तौ, उषसि) तौ उषःकाले (शुभस्पती) जलानां रक्षकौ (रुद्रवर्तनी) रुद्रत्वेन वर्तयन्तौ (ता) तावेव (यामन्) अह्नि आह्वयामः (रुद्रौ) हे दुःखस्य द्रावकौ (वाजिनीवसू) हे सेनाधनौ ! (मर्ताय, रिपवे) शत्रुजनाय (नः, परः) अस्मत्परस्तात् (मा, अति, ख्यतम्) मा अतिप्रख्यापयतम् ॥१४॥

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    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    वयं प्रजाः । तावित्=तावेव । शुभस्पती=शुभपती=शुभानां पालयितारौ । रुद्रवर्तनी= भयङ्करमार्गौ । अश्विनौ । दोषा=रात्रौ । आह्वयामः । ता=तौ । उषसि=प्रातःकाले । ता=तौ । यामन्=यामनि दिने च । आह्वयामः । हे वाजिनीवसू=ज्ञानधनौ । हे रुद्रौ=उग्रमूर्ती ! युवाम् । नोऽस्मान् । रिपवे=शत्रवे । मर्ताय=मर्त्याय । परः=परबुद्ध्या । मा+अतिख्यतम्=मा हासिष्टम्=मा त्यजतमित्यर्थः ॥१४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (तौ, इत्, दोषा) उन्हीं दोनों को रात्रि में (तौ, उषसि) उन्हीं को उषाकाल में (ता) उन्हीं (शुभस्पती) जलादि पदार्थों के रक्षक (रुद्रवर्तनी) भयङ्कररूपधारकों को (यामन्) दिन में आह्वान करते हैं (रुद्रौ) हे दुःखों को द्रावण=दूर करनेवाले (वाजिनीवसू) सेनारूपधनवाले ! आप (मर्ताय, रिपवे) शत्रु मनुष्य को (नः, परः) हमसे अधिक (मा, अति, ख्यतम्) प्रसिद्ध मत करें ॥१४॥

    भावार्थ

    हे सब प्रजाओं के दुःख दूर करनेवाले न्यायधीश तथा सेनाधीश ! हम लोग दिन में तथा सब कालों में आपको स्तुतिपूर्वक आह्वान करते हैं, क्योंकि आप अन्न तथा शुद्ध जलों द्वारा हमारे रक्षक हैं। हे रुद्ररूपधारी नेताओ ! आप हमारे दुःखों को दूर करके हमें सुख देनेवाले हैं। आप हमारे शत्रुओं को न बढ़ने दें, किन्तु उनका अपमान करते हुए उनको सदैव वशीभूत रखें, जिससे हमारे यज्ञादि कार्यों में विघ्न न हो ॥१४॥

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    विषय

    पुनः वही विषय कहा जाता है ।

    पदार्थ

    हम प्रजागण (तौ+इत्) उन ही (शुभस्पती) शुभकर्मों के पालक जलप्रदाता और (रुद्रवर्तनी) भयङ्कर मार्गवाले अश्विदेवों को (दोषा) रात्रि में सत्कार करते हैं (ता) उनको ही (उषसि) प्रातःकाल (ता) उनको ही (यामन्) सबकाल और यज्ञों में सत्कार करते हैं (वाजिनीवसू) हे ज्ञानधनो (रुद्रौ) हे दुष्टरोदयिता अश्विद्वय ! आप (नः) हम लोगों को (मर्ताय+रिपवे) दुर्जन मनुष्य के निकट (मा+परः+अति+ख्यतम्) मत फेंकें ॥१४ ॥

    भावार्थ

    प्रजाओं को उचित है कि वे अपने सुख-दुःख की बात राजा के निकट कहें और यथोचित रीति पर उनसे शुभकर्म करावें ॥१४ ॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( तौ इत् दोषा ) वे दोनों रात्रि में, ( ता उषसि ) वे दोनों, प्रभात वेला में, ( शुभः-पती ) शुभ गुण, कर्मों और शोभा और अन्न जलादि के पालक, एवं शोभा युक्त पति पत्नी हों। ( यामन् ) मार्ग में, वा नियम व्यवस्थाओं में ( ता ) वे दोनों ( रुद्र-वर्त्तनी ) दुष्टों को रुलाने और रोग दूर करने और उपदेष्टा आदि के समान उत्तम व्यवहार करने वाले हों। हे ( वाजिनी-वसू ) बल, ज्ञान, अन्नादि युक्त प्रजा के धनी जनो ! हे ( रुद्रौ ) दुष्टों को रुलानेवालो ! आप दोनों ( नः ) हमें ( रिपवे मर्त्ताय ) शत्रु या पापी मनुष्य के लाभ या वृद्धि के लिये ( मा अति ख्यतम् ) मत परि त्याग करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचृत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शुभस्पती- रुद्रवर्तनी [अश्विना]

    पदार्थ

    [१] (तौ इत्) = उन प्राणापान को ही (दोषा) = रात्रि में, (ता) = उनकी ही (उषसि) = उषा में याचना करता हूँ। (शुभस्पती) = रेतःकणरूप जलों के रक्षक (ता) = वे प्राणापान ही (यामन्) = इस जीवनमार्ग में (रुद्रवर्तनी) = रोगों के द्रावक मार्गवाले हैं, अर्थात् ये प्राणापान ही रोगों को दूर करनेवाले हैं। [२] हे (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धनवाले रुद्रौ रोगद्रावक प्राणापानो! आप (नः) = हमें (रिपवे) = हमारा विदारण करनेवाले (मर्ताय) = मृत्यु के कारणभूत काम, क्रोध व लोभ के लिये (मा परः अतिख्यतम्) = परित्यक्त न कर दीजिये, इनके हमें वशीभूत मत होने दीजिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान रेतःकणों के रक्षण के द्वारा रोगों के द्रावक हैं। ये हमें काम-क्रोध आदि का शिकार नहीं होने देते।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those two lords of auspicious good fortune moving by paths of rectitude, justice and punishment, we invoke and celebrate at night, early morning at dawn and all times of the day. May they, lord commanders of wealth and victory, scourge of evil and violence, never forsake us to the mortal enemy, never throw us far off to the hungry wolves.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेने आपले सुख-दु:ख राजाला सांगावे व योग्य रीतीने त्यांच्याकडून शुभकर्म करवावे. ॥१४॥

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