Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 22 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    रथो॒ यो वां॑ त्रिवन्धु॒रो हिर॑ण्याभीशुरश्विना । परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी भूष॑ति श्रु॒तस्तेन॑ नास॒त्या ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रथः॑ । यः । वा॒म् । त्रि॒ऽव॒न्धु॒रः । हिर॑ण्यऽअभीशुः । अ॒श्वि॒ना॒ । परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । भूष॑ति । श्रु॒तः । तेन॑ । ना॒स॒त्या॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रथो यो वां त्रिवन्धुरो हिरण्याभीशुरश्विना । परि द्यावापृथिवी भूषति श्रुतस्तेन नासत्या गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रथः । यः । वाम् । त्रिऽवन्धुरः । हिरण्यऽअभीशुः । अश्विना । परि । द्यावापृथिवी इति । भूषति । श्रुतः । तेन । नासत्या । आ । गतम् ॥ ८.२२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे व्यापकगमनौ (नासत्या) सत्यवाचौ ! (यः, त्रिबन्धुरः) त्रिषु स्थानेषु बन्धनयुक्त उन्नतावनतो वा यः (हिरण्याभीषुः) सुवर्णशृङ्खलावेष्टितः (वाम्, रथः) युवयोर्यानम् (द्यावापृथिवी) पृथिवीं दिवञ्च (परिभूषति) परिभवति अतः (श्रुतः) प्रसिद्धः (तेन, आगतम्) तेन रथेनागच्छतम् ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    राजा सत्कारार्ह इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अश्विना=अश्विनौ । हे नासत्या=नासत्यौ=सत्यस्वभावौ असत्यरहितौ राजानौ । वाम्=युवयोः । यो रथः । त्रिबन्धुरः=त्रयाणां ब्रह्मक्षत्रविशां बन्धुरस्ति । हिरण्याभीशुः । सुवर्णप्रग्रहोऽस्ति । द्यावापृथिवी= द्यावापृथिव्योर्मध्ये । परिभूषति=परितः शोभते । यश्च श्रुतो विख्यातोऽस्ति । तेन रथेन नोऽस्मानागतमागच्छतम् ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे शीघ्रगतिवाले (नासत्या) असत्य को कभी स्वीकार न करनेवाले ! (यः, त्रिबन्धुरः) जो तीन स्थानों में बन्धनयुक्त वा ऊँचा-नीचा तथा (हिरण्याभीशुः) सुवर्ण की मेखलाओं से सुदृढ़ है, ऐसा (वाम्, रथः) आपका रथ (द्यावापृथिवी) द्युलोक तथा पृथिवीलोक को (परिभूषति) परिभूत=तिरस्कारयुक्त करता है, अतएव (श्रुतः) सर्वत्र प्रसिद्ध है (तेन) उसके द्वारा आप (आगतम्) आवें ॥५॥

    भावार्थ

    हे सत्यवादी न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! आपका शिल्पी विद्वानों से रचित यान, जो ऊपर, नीचे तथा बीच में सुदृढ़ बंधा हुआ है अर्थात् जिसको कलायन्त्रों से भले प्रकार दृढ़ बनाया है, जो वाष्प द्वारा पृथिवी तथा अन्तरिक्ष में विचरता और जिससे आप शत्रुओं को पराजित करते हैं, उसमें आरूढ़ हुए हमारे यज्ञसदन को प्राप्त हों ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा माननीय है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे अश्वयुक्त ! (नासत्या) सत्यस्वभाव असत्यरहित राजन् तथा अमात्यदल ! (वाम्) आपका (यः+रथः) जो रमणीय रथ या विमान (त्रिबन्धुरः) ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य का बन्धु है (हिरण्याभीशुः) जिसके घोड़ों का लगाम स्वर्णमय है, जो (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में (परि+भूषति) शोभित होता है और जो (श्रुतः) सर्वत्र विख्यात है, (तेन) उस रथ से हम लोगों के निकट (आगतम्) आवें ॥५ ॥

    भावार्थ

    समय-२ पर राजा अपने मन्त्रिदलसहित प्रजाओं के गृह पर जा सत्कार ग्रहण करें ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( यः ) जो (वां) तुम दोनों का ( रथः ) रथ के समान सुख देने वाला, उत्तम गृहस्थ रूप रथ है वह रथ के समान ही ( त्रि-बन्धुरः ) तीन ऋण रूप बन्धनों के समान कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों बन्धनों से युक्त है, इसमें ( हिरण्याभीशुः ) हित रमणीय वचन वा सुवर्णादि ही अभीशु अर्थात् लगाम के समान है । वह ( श्रुतः ) विख्यात, एवं गुरूपदेशादि श्रवण करके विद्या से सम्पन्न होकर ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और भूमि के सदृश ( परि भूषति ) सुशोभित होता है। हे ( नासत्या ) कभी व्यभिचार आदि असत्याचरण न करने वाले आप दोनों ( तेन ) उसी रथ से ( आ गतम् ) आओ,जाओ, संसार मार्ग की यात्रा किया करो । इति पञ्चमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'त्रिबन्धुर-हिरण्याभीशु' रथ

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यः) = जो (वाम्) = आपका (रथः) = शरीररूप रथ (त्रिबन्धुरः) = तीनों 'शरीर, मन व बुद्धि' के सौन्दर्यवाला है तथा (हिरण्याभीशुः) = ज्योतिर्मय मनरूप लगामवाला है, वह द्यावापृथिवी इस मस्तिष्करूप द्युलोक को तथा शरीररूप पृथिवी को (परिभूषति) = सर्वतः ज्ञान व शक्ति आदि से सुभूषित करता है। प्राणापान के द्वारा यह प्रभु से जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये दिया गया रथ सुन्दर ही सुन्दर बन जाता है। शरीर, मन व बुद्धि का सौन्दर्य प्राणसाधना पर ही निर्भर करता है। [२] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! यह रथ (श्रुतः) = बुद्धि के द्वारा खूब ही ज्ञान सम्पन्न बना है। (तेन) = उस रथ से (आगतम्) = आप हमें प्राप्त होइये । प्राणसाधना से यह शरीर रथ सुन्दरतम बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर में जहाँ किसी प्रकार का रोग नहीं रहता, मन सब मलों से रहित हो जाता है और बुद्धि सब कुण्ठाओं से ऊपर उठकर सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय का ग्रहण करती है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your famous and celebrated three-stage chariot controlled by golden steers traverses over heaven and earth. O lovers of truth and righteousness, come to us by that glorious chariot.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेळोवेळी राजाने आपल्या मंत्र्यांसह प्रजेच्या घरी जाऊन सत्काराचा स्वीकार करावा. ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top