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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    इ॒ह त्या पु॑रु॒भूत॑मा दे॒वा नमो॑भिर॒श्विना॑ । अ॒र्वा॒ची॒ना स्वव॑से करामहे॒ गन्ता॑रा दा॒शुषो॑ गृ॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । त्या । पु॒रु॒ऽभूत॑मा । दे॒वा । नमः॑ऽभिः । अ॒श्विना॑ । अ॒र्वा॒ची॒ना । सु । अव॑से । क॒रा॒म॒हे॒ । गन्ता॑रा । दा॒शुषः॑ । गृ॒हम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह त्या पुरुभूतमा देवा नमोभिरश्विना । अर्वाचीना स्ववसे करामहे गन्तारा दाशुषो गृहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । त्या । पुरुऽभूतमा । देवा । नमःऽभिः । अश्विना । अर्वाचीना । सु । अवसे । करामहे । गन्तारा । दाशुषः । गृहम् ॥ ८.२२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (त्या) तौ (पुरुभूतमा) बहूनां भावयितारौ (देवा) दिव्यस्वरूपौ (दाशुषः, गृहम्, गन्तारा) याज्ञिकस्थाने गमनशीलौ (अश्विना) सेनाधीशन्यायाधीशौ (स्ववसे) शोभनरक्षायै (इह) यज्ञस्थाने (नमोभिः) स्तुतिभिः (अर्वाचीना) अभिमुखौ (करामहे) कुर्महे वयं याज्ञिकाः ॥३॥

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    विषयः

    हे मनुष्याः ! युष्मदर्थं कीदृशौ राजमन्त्रिणौ प्रेषयामीति जानीत ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! यौ राजमन्त्रिदलौ । इह=पृथिव्यामुपरि । पुरुभूतमा=पुरुभूतमौ=पुरूणां बहूनां सतामतिशयेन भावयितारौ=सम्मानयितारौ । भवेताम् । देवा=देवौ= दिव्यगुणसम्पन्नौ । नमोभिः=सत्कारैर्युक्तौ । अश्विनौ= अश्वयुक्तौ=गुणैः प्रजानां हृदयेषु व्याप्तौ । अवसे=रक्षणाय । सदा । अर्वाचीना=अर्वाचीनौ= अभिमुखयातारौ । पुनः । दाशुषः=भक्तजनस्य । गृहम् । गन्तारा=गन्तारौ । ईदृशौ । यौ स्तः । त्या=तौ राजानौ । वयम् । करामहे=कुर्मः ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (त्या) उन (पुरुभूतमा) शत्रुओं का अत्यन्त पराभव करनेवाले (देवा) दिव्यस्वरूप (दाशुषः, गृहम्, गन्तारा) याज्ञिक के गृह में जाने के स्वभाववाले (अश्विना) सेनाधीश वा न्यायाधीश को (स्ववसे) सुखद रक्षा के लिये (इह) इस यज्ञस्थान में (नमोभिः) स्तुतिवाणियों अथवा उनके उपभोगार्ह देयभाग द्वारा (अर्वाचीना) अभिमुख (करामहे) करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    याज्ञिक पुरुषों के घर जाकर उनकी सहायता करनेवाले, दिव्यस्वरूप सेनाधीश तथा न्यायाधीश ! आप अपना याज्ञिकभाग ग्रहण कर उपभोग करें और हमारी स्तुतियों को स्वीकार कर यज्ञ की रक्षा के लिये सदैव सन्नद्ध रहें ॥३॥

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    विषय

    हे मनुष्यों ! आपके लिये कैसे राजा और मन्त्रिदल भेजता हूँ, उसे जानो ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! जो राजा और मन्त्रिदल दोनों (इह) इस पृथिवी पर (पुरुभूतमा) बहुत सज्जनों के अतिशय सम्मान देनेवाले हों, (देवा) दिव्यगुणसम्पन्न हों (नमोभिः) सम्मानों से युक्त हों, (अश्विना) घोड़ों से युक्त हों या गुणों के द्वारा प्रजाओं के हृदयों में व्याप्त हों, (अर्वाचीना) युद्ध में सदा अभिमुख जानेवाले हों तथा (दाशुषः) भक्तजनों के (गृहम्) गृह पर (गन्तारा) गमनशील हों, ऐसे राजा और मन्त्रिदल को (अवसे) संसार की रक्षा के लिये (करामहे) बनाते हैं ॥३ ॥

    भावार्थ

    प्रजाएँ मिलकर उनको स्वराजा बनावें, जो विद्वान्, साहसी, सत्यपरायण और जितेन्द्रियत्व आदि गुणों से भूषित हों, जिनमें स्वार्थ का लेश भी न हो, किन्तु मनुष्य के हित के लिये जिनकी सर्व प्रवृत्ति हो ॥३ ॥

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    विषय

    गृहस्थ रथ का वर्णन।

    भावार्थ

    ( इह ) यहां ( दाशुषः ) आतिथ्यादि देने वाले के ( गृहंगन्तारा ) गृह पर जाने वाले, ( पुरु-भूतमा ) बहुतों के प्रति सद्भावना करने वाले, ( देवा ) उत्तम गुणों से अलंकृत ( त्या ) उन दोनों ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को ( अवसे ) उत्तम रूप से तृप्त, प्रसन्न करने के लिये, ( नमोभिः ) अन्नों और आदरयुक्त वचनों से ( सु करामहे ) सत्कार करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु नमन व यज्ञशीलता

    पदार्थ

    [१] (इह) = इस जीवन में हम (त्या) = उन (पुरु-भू-तमा) = अतिशयेन बहुत भी शत्रुओं का पराभव करनेवाले (देवा) = जीवन को प्रकाशमय बनानेवाले (अश्विना) = प्राणापानों को (नमोभिः) = प्रभु के प्रति नमनों के द्वारा (अर्वाचीना) = हमारे अभिमुख प्राप्त होनेवाला करामहे करते हैं। ये प्राणापान ही (स्ववसे) = हमारे उत्तम रक्षण के लिये होते हैं। प्रभु का आराधन हमारी प्राणशक्ति के वर्धन में सहायक होता है। [२] ये प्राणापान (दाशुषः) = दाश्वान के, यज्ञशील पुरुष के (गृहम्) = शरीररूप गृह को (गन्तारा) = प्राप्त होनेवाले होते हैं। यज्ञशीलता भी प्राणापान की शक्ति की वृद्धि में सहायक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु नमन व यज्ञशीलता के द्वारा प्राणापान की शक्ति का वर्धन करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Here on the earth for the sake of protection and progress of the human nation, with all honours and reverence, we invoke, appoint and consecrate the Ashvins, universally acceptable, brilliant and generous complementary twin powers of the nation such as the ruler and the governing council or ruler and the commander of defence forces, who are harbingers of fresh life, energy and prosperity for humanity, who are latest in knowledge and competence and freely mix with the generous citizens at their homes.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेने मिळून स्वत:चा राजा निवडावा. जो विद्वान, साहसी, सत्यपरायण व जितेन्द्रियत्व इत्यादी गुणांनी भूषित असावा. ज्याच्यामध्ये स्वार्थाचा लवलेशही नसावा, परंतु माणसांच्या हिताकडे त्याची प्रवृत्ती असावी. ॥३॥

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