ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 15
आ सुग्म्या॑य॒ सुग्म्यं॑ प्रा॒ता रथे॑ना॒श्विना॑ वा स॒क्षणी॑ । हु॒वे पि॒तेव॒ सोभ॑री ॥
स्वर सहित पद पाठआ । सुग्म्या॑य । सुग्म्य॑म् । प्रा॒तरिति॑ । रथे॑न । अ॒श्विना॑ । वा॒ । स॒क्षणी॒ इति॑ । हु॒वे । पि॒ताऽइ॑व । सोभ॑री ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सुग्म्याय सुग्म्यं प्राता रथेनाश्विना वा सक्षणी । हुवे पितेव सोभरी ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सुग्म्याय । सुग्म्यम् । प्रातरिति । रथेन । अश्विना । वा । सक्षणी इति । हुवे । पिताऽइव । सोभरी ॥ ८.२२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अश्विना) हे अश्विनौ (सक्षणी) सेव्यौ ! (सुग्म्याय) सुखार्हायास्मै (सुग्म्यम्) सुखम् (आ) आवहताम् (सोभरी) विद्वान् अहम् (प्रातः, वा) प्रातरेव (रथेन, हुवे) रथहारेण ह्वयामि (पितेव) यथा मत्पिता ॥१५॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
वा=अपि च । हे सक्षणी=सेवनीयशीलौ । अश्विना=अश्विनौ=राजानौ ! युवाम् । सुग्म्याय=सुखयोग्याय पुरुषाय । सुग्म्यम्=सुखम् । प्रातरेव । रथेनावहतम् । सोभरी=सोभरिर्विद्वान् । पितेव=यथा मम पिता पितामहादयश्च युवामाहूतवन्तः । तथैवाहमपि । हुवे=आह्वयामि=प्रार्थयामि ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अश्विना) हे व्यापकशक्तिवाले (सक्षणी) सेव्य ! आप (सुग्म्याय) आपका सेवक होने से सुखोचित मुझको (सुग्म्यम्) सुख (आ) आहरण करें (सोभरी) महर्षिपुत्र मैं (प्रातः, वा) प्रातःकाल ही (पितेव) अपने पिता के समान (रथेन, हुवे) रथद्वारा आपको आह्वान करता हूँ ॥१५॥
भावार्थ
हे सेवनीय न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! हम ऋषिसन्तान प्रातःस्मरणीय पिता के समान आपको आह्वान करते हैं, आप हमारे यज्ञसदन को प्राप्त होकर सुखवृष्टि करें ॥१५॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(सक्षणी) हे सेवनीयशील (अश्विना) हे राजन् ! तथा मन्त्रिदल आप दोनों (सुग्म्याय) सुखयोग्य पुरुष को (सुग्म्यम्) सुख (प्रातः) प्रातःकाल ही (रथेन) रथ से (आ) अच्छे प्रकार पहुँचावें । हे राजन् ! (सोभरी) मैं विद्वान् (पिता+इव्) अपने पिता-पितामह आदि के समान (हुवे) आपकी स्तुति करता हूँ ॥१५ ॥
भावार्थ
राजवर्ग को उचित है कि वे प्रातःकाल उठकर नित्यकर्म करने के पश्चात् प्रजावर्गों की खबर लेवें ॥१५ ॥
विषय
missing
भावार्थ
हे ( सक्षणी ) एक साथ रहने वाले, ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( प्रातः ) प्रातःकाल, ( सुग्म्याय ) सुख प्राप्त करने के लिये ( सुग्म्यं ) सुखपूर्वक ( रथेन ) रमण योग्य, सुख से सेवने योग्य, गृहस्थ रूप रथ से ( आ ) जीवन व्यतीत करो। मैं ( सोभरा ) उत्तम रीति से पोषण करने वाला ( पिता इव ) पिता के समान तुम दोनों को ( हुवे ) बुलाता हूं और उपदेश करता हूं। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचृत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुग्म्याय सक्षणी [अश्विना]
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (सुग्म्याय) = सुख के लिये सक्षणी सेवनीय हो [To be associated weth] । आप (वा) = निश्चय से (रथेन) = इस शरीर रथ के द्वारा हमारे जीवनों में (सुगम्यम्) = सुख को (आ प्रातः) = सर्वथा पूरित करते हो [प्रा पूरणे] । [२] (पिता इव हुवे) = पुत्र से पिता की तरह आप मेरे से पुकारे जाते हो। (सोभरी) = आप हमारा उसी प्रकार उत्तम भरण करनेवाले हो, जैसे पिता पुत्र का भरण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान का आराधन सुख प्राप्ति के लिये आवश्यक है। आराधित हुए हुए प्राणापान हमारे जीवन को सुखी बनाते हैं। ये हमारे से इसी प्रकार पुकारने योग्य हैं, जैसे पुत्रों से पिता ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Like my father rich in knowledge and enlightenment, I invoke the Ashvins, twin, inseparable powers of complementarity in unison, in the morning to come by chariot as they please and to bring riches and joy for the devotee praying for riches and joy.
मराठी (1)
भावार्थ
राजवर्गाने प्रात:काळी उठून नित्यकर्म केल्यानंतर प्रजेची खबर घ्यावी ॥१५॥
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