ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
यु॒वो रथ॑स्य॒ परि॑ च॒क्रमी॑यत ई॒र्मान्यद्वा॑मिषण्यति । अ॒स्माँ अच्छा॑ सुम॒तिर्वां॑ शुभस्पती॒ आ धे॒नुरि॑व धावतु ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वः । रथ॑स्य । परि॑ । च॒क्रम् । ई॒य॒ते॒ । ई॒र्मा । अ॒न्यत् । वा॒म् । इ॒ष॒ण्य॒ति॒ । अ॒स्मान् । अच्छ॑ । सु॒ऽम॒तिः । वा॒म् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । आ । धे॒नुःऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवो रथस्य परि चक्रमीयत ईर्मान्यद्वामिषण्यति । अस्माँ अच्छा सुमतिर्वां शुभस्पती आ धेनुरिव धावतु ॥
स्वर रहित पद पाठयुवः । रथस्य । परि । चक्रम् । ईयते । ईर्मा । अन्यत् । वाम् । इषण्यति । अस्मान् । अच्छ । सुऽमतिः । वाम् । शुभः । पती इति । आ । धेनुःऽइव । धावतु ॥ ८.२२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(शुभस्पती) हे अन्नादिपदार्थानां रक्षकौ सेनाधीशन्यायाधीशौ ! (युवोः, रथस्य) युवयोर्यानस्य (चक्रम्, परीयते) एकं चक्रं परितो भ्राम्यति (अन्यत्) द्वितीयं च (ईर्मा, वाम्) स्थितिचालन विचालनाद्यर्थं प्रेरकौ युवाम् (इषण्यति) उपतिष्ठते (सुमतिः) स सुज्ञानसाध्यो रथः (अस्मान्, अच्छ) अस्मदभिमुखम् (धेनुरिव) गौर्यथा वत्समभि तथा (आधावतु) आप्रपततु ॥४॥
विषयः
समये समये राजानौ प्रजाभिः स्वीये गृहे सत्कारार्थमाहातव्यमिति शिक्षते ।
पदार्थः
हे राजानौ ! युवां महाप्रतापिनौ वर्तेथे । यतः । युवोः=युवयोः । रथस्य । एकमेव चक्रम् । परि=परितः । सर्वत्र प्रजानां मध्ये । ईयते=गच्छति । अन्यच्चक्रम् । वाम्=युवामेव । इषण्यति= सेवते । युवयोरर्द्धपरिश्रमेणैव प्रजापालनं भवतीति भावः । कथंभूतौ युवाम् । ईर्मा=ईर्मौ=कार्य्यं ज्ञात्वा तत्र तत्र सेनादीनां प्रेरकौ । हे शुभस्पती=शुभस्य जलस्य शुभकर्मणो वा पालकौ । वाम्=यतो युवां शुभस्पती । अतः । वाम्=युवयोः । सुमतिः=कल्याणी मतिः । अस्मान् । अच्छा= अभिमुखमाधावतु=आगच्छतु । अत्र दृष्टान्तः । धेनुरिव=यथा नूतनप्रसूता गौर्वत्सं प्रति धावति तद्वत् ॥४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(शुभस्पती) हे अन्नादि पदार्थों द्वारा पालक सेनाधीश तथा न्यायाधीश ! (युवोः) आपके (रथस्य) यन्त्रयान का (चक्रम्) एक चक्र तो (परीयते) निरन्तर घूमता हुआ चलता है और (अन्यत्) दूसरा ऊपर का चक्र (ईर्मा, वाम्) स्थिति=ठहरना, चालन=चलाना, विचालन=तिरछा फेरना इत्यादि क्रियाओं के प्रेरक आपके पास ही (इषण्यति) बना रहता है (सुमतिः) वह सुन्दर ज्ञानसाध्य आपका रथ (अस्मान्, अच्छ) हमारे अभिमुख (धेनुरिव) जिस प्रकार गौ वत्स के अभिमुख वेग से आती है, उसी प्रकार (आधावतु) शीघ्र आवे ॥४॥
भावार्थ
इसी अर्थ का महर्षि श्रीस्वामी दयानन्दसरस्वतीजी ने “न्यघ्न्यस्य मूर्धनि०” ऋग्० १।३०।१९। मन्त्र के भाष्य में प्रतिपादन किया है, विशेषाभिलाषी वहाँ देख लें। भाव यह है कि हे अन्न द्वारा पालक न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! आपका उपर्युक्त प्रकार का यान, जो विचित्र कलाओं से सुसज्जित है, उसमें आरूढ़ हुए आप शीघ्र ही हमारे यज्ञ को प्राप्त होकर सब बाधाओं को दूर करते हुए यज्ञ को पूर्ण करें ॥४॥
विषय
समय-२ पर प्रजाओं को उचित है कि स्वगृह पर राजा और मन्त्रिदल को बुलावें, इसकी शिक्षा देते हैं ।
पदार्थ
हे राजन् तथा मन्त्रिदल ! आप दोनों महाप्रतापी हैं, क्योंकि (युवोः) आपके (रथस्य) रथ का एक ही (चक्रम्) चक्र (परि) प्रजाओं में सर्वत्र (ईयते) जाता है (अन्यत्) और दूसरा चक्र (वाम्) आपकी ही (इषण्यति) सेवा करता है अर्थात् आपके अर्धपरिश्रम से ही प्रजाओं का पालन हो रहा है । आप कैसे हैं, (ईर्मा) कार्य्य जानकर वहाँ-२ सेनादिकों को भेजनेवाले । (शुभस्पती) हे शुभकर्मों या जलों के रक्षको ! जिस हेतु आप शुभस्पति हैं, अतः (धेनुः+इव) वत्स के प्रति नवप्रसूता गौ जैसे (वाम्) आपकी (सुमतिः) शोभनमति (अस्मान्+अच्छ) हम लोगों की ओर (आधावतु) दौड़ आवे ॥४ ॥
भावार्थ
जो अच्छे नीतिनिपुण और वीरत्वादिगुणयुक्त राजा और मन्त्रिदल हों, उनको ही सब प्रजा मिलकर सिंहासन पर बैठावें ॥४ ॥
विषय
गृहस्थ-स्थ के दो चक्र।
भावार्थ
गृहस्थ रथ के दो चक्र। हे ( ईर्मा ) एक शरीर में लगे दो बाहुओं के समान ( शुभः-पती ) उत्तम व्रतों, कर्मों के पालक, एवं शोभा युक्त पति-पत्नी जनो ! ( युवोः रथस्य चक्रम् ) तुम दोनों के बने रथ अर्थात् रमणीय रथवत् गृहस्थ का एक 'चक्र' वत् कर्त्ता पुरुष, ( परि ईयते ) सर्वत्र बाहर जाता है, और ( वाम् अन्यत् ) तुम दोनों में दूसरा चक्र स्त्री, वह केवल ( इषण्यति ) चाहना करती है। ( वां-सुमतिः) तुम दोनों की उत्तम बुद्धि ( धेनुः इव ) गौ के समान (अस्मान् अच्छ आ धावतु ) हम को भली प्रकार प्राप्त होवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
एक चक्र मस्तिष्क [द्योलोक] की ओर तो दूसरा शरीर [ पृथिवी ] की ओर
पदार्थ
[१] हे अश्विनी देवो, प्राणापानो! (युवो:) = आपके (रथस्य) = इस शरीर रथ का (चक्रम्) = एक चक्र तो (परि ईयते) = [द्यां] सुदूर मस्तिष्करूप द्युलोक में गतिवाला होता है। अर्थात् आप अपनी गति के द्वारा मस्तिष्करूप द्युलोक को बड़ा सुन्दर बनाते हो । (वाम्) = आपका (अन्यत्) = दूसरा चक्र (ईर्मा) = भुजाओं को (इषण्यति) = [गच्छति] जाता है। अर्थात् आप की दूसरी गति इस शरीर में भुजाओं की शक्ति का वर्धन करती है। प्राणसाधना से मस्तिष्क का ठीक रूप में विकास होकर प्रकाश की वृद्धि होती है और भुजाओं की शक्ति बढ़ती है। प्राणायाम से ज्ञान व बल दोनों का वर्धन होता है। [२] हे प्राणापानो ! (शुभस्पती) = [शुभस् - उदक- रेतस्] आप शरीर में रेतःकण रूप जलों के रक्षक हो। और इस प्रकार (वाम्) = आपकी (सुमतिः) = कल्याणीमति रेतःकणों से प्रदीप्त हुई-हुई बुद्धि (अस्मान् अच्छा) = हमारी ओर इस प्रकार (आधावतु) = सर्वथा दौड़ती हुई प्राप्त हो, (इव) = जैसे (धेनु:) = नव प्रसूता गौ बछड़े की ओर आती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से ज्ञान व बल का वर्धन होता है। प्राणसाधना से शरीर में सोम का रक्षण होकर सुमति की प्राप्ति होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
One chariot of yours is ever on the wheel going all round and round, the other serves, inspires and flies you anywhere when you need. O protectors of the auspicious good fortune of the human nation, may your good will and benevolence hasten to reach us like the mother cow rushing to her calf.
मराठी (1)
भावार्थ
जे चांगले नीतिनिपुण व वीरत्व इत्यादी गुणयुक्त राजा व मंत्रिगण असतील तर त्यांनाच सर्व प्रजेने मिळून सिंहासनावर बसवावे. ॥४॥
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