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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 11
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    शनै॑श्चि॒द्यन्तो॑ अद्रि॒वोऽश्वा॑वन्तः शत॒ग्विन॑: । वि॒वक्ष॑णा अने॒हस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शनैः॑ । चि॒त् । यन्तः॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । अश्व॑ऽवन्तः । श॒त॒ऽग्विनः॑ । वि॒वक्ष॑णाः । अ॒ने॒हसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शनैश्चिद्यन्तो अद्रिवोऽश्वावन्तः शतग्विन: । विवक्षणा अनेहस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शनैः । चित् । यन्तः । अद्रिऽवः । अश्वऽवन्तः । शतऽग्विनः । विवक्षणाः । अनेहसः ॥ ८.४५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Advancing at a steady-pace, O lord of the clouds, mountains and the thunderbolt, we would be thriving with horses and a hundredfold attainments of new wealth and power and, free from sin and evil, we would come closer to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही आपली उन्नती हळूहळू करावी. अनेक पशूंचे पालन करावे व त्यांच्याकडून लाभ घ्यावा व अशा प्रकारचा आचार विचार करावा की, ज्यामुळे कोणता उपद्रव होता कामा नये. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अद्रिवः=दण्डधारिन् ! अन्तरात्मन् ! वयम् । संसारकार्ये । शनैः=मन्दं मन्दम् । यान्तः=गच्छतः सुखिनः स्याम । अश्वावन्तः=अश्वगोप्रभृतिपशुमन्तो भवेम । शतग्विनः=शतधनोपेताः । विवक्षणाः=प्रतिदिनमभीष्टं वहन्तः । अनेहसः=उपद्रवरहिताश्च भवेम ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अद्रिवः) हे महादण्डधर अन्तरात्मन् ! हम उपासक संसार के कार्य में (शनैः चित्) मन्द-मन्द (यान्तः) चलते हुए सुखी होवें (अश्वावन्तः) अश्व, गौ और मेष आदि पशुओं से युक्त होवें तथा (शतग्विनः) शतधनोपेत यथार्थ विविध प्रकार के धनों से युक्त होवें तथा (विवक्षणाः) नित्य नवीन-२ वस्तुओं को प्राप्त करते हुए हम (अनेहसः) उपद्रवरहित होवें ॥११ ॥

    भावार्थ

    हम अपनी-२ उन्नति धीरे-२ करें । विविध पशुओं को भी पालकर उनसे लाभ उठावें और सदा वैसे आचार और विचार से चलें, जिससे कोई उपद्रव न आवे ॥११ ॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अद्रिवः) बलवन्, शक्तिशालिन् ! हम (शनैः चित् यन्तः) शनै: २ जाते हुए, (अश्वावन्तः) अश्वों वाले, (शतग्विनः) सौ २ भूमियों वा सौ २ गायों के स्वामी, वा शतवर्षजीवी, ( अनेहसः ) निष्पाप और (विवक्षणाः) राष्ट्र में विशेष अधिकार पद को धारण करने वाले होवें। युद्धादि में विशेष पराक्रमी लोग अवश्य बल, अधिकार और ऐश्वर्यादि चाहते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    शनैः चित् यन्तः [शान्तिपूर्वक गति ]

    पदार्थ

    [१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! हम आपकी उपासना में (शनै चित् यन्तः) = निश्चय शान्तिपूर्वक गतिवाले होते हुए (अश्वावन्तः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले बनें। तथा (शतग्विनः) = शत वर्षपर्यन्त आयुष्य में जानेवाले हों। [२] (विवक्षणाः) = हम विशिष्ट उन्नतिवाले हों तथा (अनेहस:) निष्पाप जीवनवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन में शान्तिपूर्वक चलते हुए हम प्रशस्त इन्द्रियोंवाले, दीर्घजीवी, विशिष्ट विकासवाले व निष्पाप हों।

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