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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 22
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि त्वा॑ वृषभा सु॒ते सु॒तं सृ॑जामि पी॒तये॑ । तृ॒म्पा व्य॑श्नुही॒ मद॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । वृ॒ष॒भ॒ । सु॒ते । सु॒तम् । सृ॒जा॒मि॒ । पी॒तये॑ । तृ॒म्प । वि । अ॒श्नु॒हि॒ । मद॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा वृषभा सुते सुतं सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥ ८.४५.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 22
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of generous and creative power, when the yajna is on and soma is distilled, I prepare the cup and offer you the drink. Pray accept, drink to your heart’s content and enjoy the ecstasy of bliss divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी निरनिराळे पदार्थ तयार करून परमेश्वराला समर्पित करावेत. अर्थात ते सर्वांच्या कामी यावेत. ॥२२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे वृषभ ! उपासकानामभीष्टवर्षाकारिन् इन्द्र ! त्वामभि=त्वामुद्दिश्य । अहमुपासकः । सुते=प्रस्तुते यज्ञे । सुतं=विविधं वस्तु । पीतये=मनुष्याणां पीतये । सृजामि=त्यजामि । हे देव । तृम्प=तान् तर्पय । तेषां मदमानन्दञ्च । व्यश्नुहि=विस्तारय च ॥२२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वृषभ) हे उपासकों को अभीष्ट देनेवाले देव ! (त्वाम्+अभि) आपके उद्देश से अर्थात् आपकी प्रसन्नता के लिये (सुते) इस प्रस्तुत यज्ञक्रिया में (पीतये) मनुष्यों के पान और भोग के लिये (सुतम्) सोमयुक्त विविध पदार्थ (सृजामि) देता हूँ । हे इन्द्र ! (तृम्प) उनको आप तृप्त करें और (मदम्) उनके आनन्द को (व्यश्नुहि) बढ़ावें ॥२२ ॥

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    विषय

    उस से नाना प्रार्थनाएं, शरणयाचना।

    भावार्थ

    हे ( वृषभ ) बलवन् ! ( सुतं त्वा ) अभिषिक्त ( सुते ) ऐश्वर्ययुक्त इस पद पर ( पीतये ) रक्षा करने के लिये ( अभि सृजामि ) तुझे नियुक्त करता हूं। तू ( मदम् वि अनुहि ) सुख आनन्द विविध प्रकार से प्राप्त कर और ( तृम्प ) तृप्तिकारक आनन्द का भोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    प्रभुस्मरण-सोमरक्षण-आनन्द का अनुभव

    पदार्थ

    [१] हे (वृषभ) = शक्तिशालिन् सुखवर्षक प्रभो ! (सुते) = शरीर में सोम का अभिषव होने पर (सुतं) = इस उत्पन्न सोम को (पीतये) = पीने के लिए (त्वा) = आपको (अभिसृजामि) = प्रात:-सायं [दिन के दोनों ओर] स्मरण द्वारा उत्पन्न करता हूँ, आपकी भावना को अपने में जगाता हूँ। [२] (तृम्पा) = इस सोमपान द्वारा आप मुझे तृप्ति व प्रीति का अनुभव कराइये तथा (मदं व्यश्नुहि) = आनन्द को मेरे में व्याप्त करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुस्मरण से, वासनाओं का शिकार न होते हुए, हम सोमरक्षण द्वारा तृप्ति व आनन्द का अनुभव करें।

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