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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 29
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒भु॒क्षणं॒ न वर्त॑व उ॒क्थेषु॑ तुग्र्या॒वृध॑म् । इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒भु॒क्षण॑म् । न । वर्त॑वे । उ॒क्थेषु॑ । तु॒ग्र्य॒ऽवृध॑म् । इन्द्र॑म् । सोमे॑ । सचा॑ । सु॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋभुक्षणं न वर्तव उक्थेषु तुग्र्यावृधम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋभुक्षणम् । न । वर्तवे । उक्थेषु । तुग्र्यऽवृधम् । इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥ ८.४५.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 29
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the soma is distilled and seasoned and the hymns are sung in the yajna, then to win the company and favour of mighty Indra, I adore the mighty lord, a friend and protector of the strength and power of the people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! प्रत्येक लौकिक किंवा वैदिक कर्माच्या वेळी मी ईश्वराची स्तुती करतो तशी तुम्हीही करा. ॥२९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पदार्थः

    नकारश्चार्थः । न=पुनः । उक्थेषु=उक्थैः स्तोत्रैः संयुक्तेषु शुभकर्मसु प्राप्तेषु । अहम् । ऋभुक्षणम्=महान्तम् । तुग्य्रावृधम्=तुग्य्राया उदकस्य वर्धयितारम् । तुग्य्रा इति उदकनाम । निघण्टुः । परमात्मानम् । वर्तवे=स्वीकर्तुम् । स्तौमीति शेषः । पुनः । सुते=अनुष्ठिते । सोमे=सोमाख्ये यज्ञे । सचा=सार्थम् इन्द्रमेव स्तौमि ॥२९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (न) पुनः (उक्थेषु) विविध स्तोत्रों से संयुक्त शुभकर्मों के प्राप्त होने पर मैं (ऋभुक्षणम्) महान् और (तुग्य्रावृधम्) जल के वर्धक पिता परमात्मा की (वर्तवे) ग्रहण करने के लिये स्तुति करता हूँ । तथा (सुते) अनुष्ठित (सोम) सोमयज्ञ में भी (सचा) कर्म के साथ साथ (इन्द्रम्) इन्द्र की ही स्तुति करता हूँ ॥२९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जैसे प्रत्येक लौकिक या वैदिक कर्म के समय मैं ईश्वर की स्तुति करता हूँ, वैसा आप भी करें ॥२९ ॥

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    विषय

    उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( सोमे) सोम, अर्थात् पुत्रवत् शासन करने योग्य पुत्र के (सुते ) अभिषेक कर देने पर ( ऋभुक्षणं ) महान् (न) और ( तुग्र्यावृधम् ) शत्रु की हिंसा करने वाली, बल बढ़ाने वाली, राष्ट्र का पालन करने वाली, राजा प्रजा को आश्रय देने वाली, शक्ति को बढ़ाने वाले, ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु वा राजा को ( वर्त्तवे ) वरण करने के लिये ( उक्थेषु ) उत्तम २ वचनों में उसकी (सचा) एक साथ मिलकर प्रशंसा करें, उसका गुणानुवाद करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    ऋभुक्षणं तुग्यग्यावृधम्

    पदार्थ

    [१] (न) [संप्रत्यर्थे] = अब हम (ऋभुक्षणं) = महान् प्रभु को (वर्तवे) = चुननेवाले हों । प्रकृति की अपेक्षा प्रभु का वरण करनेवाले हों। उस प्रभु का वरण करें जो (उक्थेषु) = स्तोत्रों के होने पर (तृग्र्यावृधम्) = रेतःकणरूप जलों का वर्धन करनेवाले हैं। [२] हम (सौमे सुते) = सोम को सम्पादित होने पर (इन्द्रं) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (सचा) = साथ होनेवाले हों। यह प्रभु के साथ होना ही वस्तुत: हमें सोमरक्षण के योग्य बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु महान् है, महान् ज्ञानज्योति में निवास करनेवाले हैं। शरीरस्थ रेतःकणों का रक्षण करनेवाले हैं। सोम के रक्षित होने पर ही प्रभु का दर्शन होता है।

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