ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 24
इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से । सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्वा॒ । गोऽप॑रीणसा । म॒हे । म॒न्द॒न्तु॒ । राध॑से । सरः॑ । गौ॒रः । यथा॑ । पि॒ब॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्वा गोपरीणसा महे मन्दन्तु राधसे । सरो गौरो यथा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्वा । गोऽपरीणसा । महे । मन्दन्तु । राधसे । सरः । गौरः । यथा । पिब ॥ ८.४५.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Here may the lovers of cows entertain you with milk and soma for the achievement of great competence and success so that you may drink like the thirsty stag drinking at the pool.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा जेव्हा नवीन अन्न तयार होते किंवा अधिक लाभ होतो, तेव्हा तेव्हा माणसांनी ईश्वराच्या नावावर आपले परिजन व मित्र यांना बोलावून उत्सव करावा व ईश्वराला धन्यवाद द्यावा. ॥२४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! इह=संसारे । त्वा=त्वदुद्देशेन । महे=महते । राधसे=धनाय । जनाः । गोपरीणसा=गवां दग्धैः दधिभिः घृतप्रभृतिभिश्च । मन्दन्तु=आनन्दन्तु परस्परम् । हे इन्द्र ! तृषितः । गौरो मृगः । सरः=सरस्थं जलं पिबति । तथा त्वमपि । पिब=उत्कटेच्छया सर्वमवलोकय ॥२४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र परमैश्वर्य्ययुक्त महादेव ! आपकी कृपा से (इह) इस संसार में (त्वा) तुम्हारे उद्देश से (महे+राधसे) बहुत धनों की प्राप्ति के उत्सव के लिये (गोपरीणसा) गौवों के दूध, दही आदि पदार्थों से (मन्दन्तु) गृहस्थ जन परस्पर आनन्दित होवें और पुरुषार्थ करें । हे महेन्द्र ! (यथा) जैसे (गौरः) तृषित मृग (सरः) सरस्थ जल पीता है, तद्वत् आप बड़ी उत्कण्ठा के साथ यहाँ आकर (पिब) हमारे समस्त पदार्थों का अवलोकन करें ॥२४ ॥
भावार्थ
जब-२ नवीन अन्न या अधिक लाभ हो, तब-२ मनुष्य को उचित है कि वे ईश्वर के नाम पर अपने परिजनों तथा मित्रों को बुलाकर उत्सव करें और ईश्वर को धन्यवाद देवें ॥२४ ॥
विषय
उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे राजन् ! (इह) इस राष्ट्र में या हे विद्वन् ! इस उत्तम पद पर (गो-परीणसा) भूमि या वाणी के महान् बल से ( महे राधसे ) बड़े भारी ऐश्वर्य के लिये ( त्वा मन्दन्तु ) तुझे हर्षित करें। ( यथा गौरः सरः ) तालाब के जल को मृग जिस प्रकार यथेच्छ पीता है उसी प्रकार तू भी ( गौर: ) पृथ्वी पर या ज्ञान-वाणी में रमण करता हुआ ( सरः ) प्रशस्त ज्ञानरूप जल का ( पिब ) पान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
सोमपान व आनन्द
पदार्थ
[१] हे जीव ! (इह) = इस जीवन में (गोपरीणसा) = ज्ञान की वाणियों द्वारा शरीर में चारों ओर व्याप्त होनेवाले सोम के द्वारा (त्वा) = तुझे (महे राधसे) = महान् साफल्य [सफलता] के लिए ये सोमकण ही (मन्दन्तु) = आनन्दित करनेवाले हों। [२] (यथा) = जैसे एक (गौर:) = गौरमृग (सर:) = तालाब को- तालाब के पानी को पीता है, तू उसी प्रकार इस सोम का (पिब) = पान कर।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का रक्षण ही सफलता व आनन्द का स्रोत हैं। इसके रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम अतिरिक्त समय को ज्ञानी की वाणियों को अध्ययन में ही लगाएँ।
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