ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 27
स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यम् । व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् । वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वणे शमि ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । तत् । तुर्वशे । यदौ । विदानः । अह्नवाय्यम् । वि । आनट् । तुर्वणे । शमि ॥ ८.४५.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 27
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Knowing the truth of the daily behaviour of the simple man of rectitude, Indra clears the path of peace and goodness in his battle of life.
मराठी (1)
भावार्थ
जो सत्यवादी आहे त्याला ईश्वर पाहतो व त्याच्यासाठी मंगलमय मार्ग उघडतो. त्यासाठी हे माणसांनो! प्रत्येक दिवशी सत्याकडे जा. असत्यात फसू नका व आपल्याला पतित बनवू नका. ॥२७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
परमात्मा ! तुर्वशे=तूर्णवशे, शीघ्रवशीभूते । यदौ=मनुष्ये । अह्ववाय्यम्=प्रतिदिनसंतानीयम्=प्रतिदिनकृतमित्यर्थः तत् सत्यम् । विदानः=प्राप्नुवन्=जानत् वा तदर्थम् । तुर्वणे=संसारक्षेत्रे । शमि=कल्याणम् । व्यानट्=विस्तारयति ॥२७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
परमात्मा (तुर्वशे) शीघ्र वश में होनेवाले सरल स्वभावी (यदौ) मनुष्य में (अह्ववाय्यम्) प्रतिदिन किए हुए (तत्+सत्यम्) उस सत्य को (विदानः) पाकर उसके लिये (तुर्वणे) इस संसार-संग्राम में (शमि) कल्याण का मार्ग (व्यानट्) फैलाता है ॥२७ ॥
भावार्थ
ईश्वर जिसमें सत्यता पाता है, उसके लिये मङ्गलमय मार्ग खोलता है, अतः हे मनुष्यों ! प्रतिदिन सत्यता की ओर जाओ । असत्यता में फँसकर अपने को मत पतित बनाओ ॥२७ ॥
विषय
उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
विद्वान् वा राजा पुरुष ( तुर्वशे ) चारों अर्थों को चाहने वाले यत्नवान् जन में ( सत्यं ) यथार्थ ज्ञान और ( अह्नवाय्यं ) दिन भर में करने योग्य कार्य की मात्रा को ठीक २ प्रकार से (विदान:) जानता हुआ ( तुर्वणे ) शीघ्र कार्य करने में कुशल पुरुष पुरुष पर ( शमि ) कार्य का (वि-आनट् ) विभाग करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
यदु
पदार्थ
[१] (तुर्वशे) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले (यदौ) = यत्नशील जन में (तत्) = उस (अह्नवाय्यम्) = न छिपाए जाने की आवश्यकतावाले सत्य को (विदानः) = जानता हुआ पुरुष (तुर्वणे) = इस जीवनसंग्राम में (शमि) = कर्म को (व्यानट्) = व्याप्त करता है सदा क्रियाशील बनता है। [२] यह क्रियाशीलता ही उसे व्यसनों से बचाकर सत्यमार्ग की ओर ले चलती है। सत्य का निवास 'तुर्वश, व यदु' में ही होता हे। 'यदु' ही 'तुर्वश' भी बन पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने में सत्य को धारण करने के लिए काम-क्रोध आदि शत्रुओं को वश में करनेवाले [तुर्वश] यत्नशील [यदु] बनें, सदा उत्तम कर्मों में लगे रहें।
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