ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 25
या वृ॑त्र॒हा प॑रा॒वति॒ सना॒ नवा॑ च चुच्यु॒वे । ता सं॒सत्सु॒ प्र वो॑चत ॥
स्वर सहित पद पाठया । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒रा॒ऽवति॑ । सना॑ । नवा॑ । च॒ । चु॒च्यु॒वे । ता । सं॒सत्ऽसु॑ । प्र । वो॒च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या वृत्रहा परावति सना नवा च चुच्युवे । ता संसत्सु प्र वोचत ॥
स्वर रहित पद पाठया । वृत्रऽहा । पराऽवति । सना । नवा । च । चुच्युवे । ता । संसत्ऽसु । प्र । वोचत ॥ ८.४५.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Whatever gifts of wealth or titles of honour old or new, Indra, destroyer of evil and darkness, you grant far off or near, all those, announce in the assemblies.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या कृपेने माणसाला जे काही प्राप्त होते त्याच्यासाठी ईश्वराला धन्यवाद द्यावेत व सभेत ईश्वरीय कृपेचे फलही ऐकवावे. त्यामुळे लोकांना विश्वास व प्रेम वाटावे. ॥२५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
वृत्रहा=निखिलविघ्ननिवारक इन्द्रो देवः । या=यानि । सना=सनातनानि=पुराणानि । नवा=नवीनानि च । परावति=दूरे वा गृहे वा । चुच्युवे=प्रेरयति ददाति । तानि सर्वाणि । संसत्सु=सभासु । स्वामी प्रवोचत=प्रब्रूताम् ॥२५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(वृत्रहा) निखिल विघ्नविनाशक इन्द्र देव मनुष्य को (परावति) किसी दूर देश में या गृह पर (या) जो (सना) पुराने या (नवा) नवीन धन (चुच्युवे) देता है (ता) उनको धनस्वामी (संसत्सु) सभाओं में (प्र+वोचत) कह सुनावे ॥२५ ॥
भावार्थ
परमात्मा की कृपा से मनुष्य को जो कुछ प्राप्त हो, उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद देवे और सभा में ईश्वरीय कृपा का फल भी सुना दे, ताकि लोगों को विश्वास और प्रेम हो ॥२५ ॥
विषय
उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( वृत्रहा ) दुष्टों का नाशक सेनापति विघ्नादि का नाश करके सफल विद्वान् ( परावति ) दूर देश में भी (या) जिन (सना ) सनातन से चले आये धनों और ज्ञानों को ( नवा च ) और नये ऐश्वर्यों और नये तत्वों को ( चुच्युवे ) प्राप्त करे ( ता ) उनको ( संसत्सु ) सभाओं, परिषदों में ( प्र वोचत ) अच्छी प्रकार उत्तम आदर से कहो, जिससे उनका यश हो, श्रोताओं को ज्ञान प्राप्त हो। राजा और विद्वान् के श्रम, संकटों, और विघ्नों को पार करके प्राप्त नये पुरानें अन्वेषणों की सभा आदि में चर्चा करते रहना चाहिये। इससे उत्साह की वृद्धि होती है। इति षट् चत्वारिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
ज्ञान की ही चर्चा
पदार्थ
[१] (वृत्रहा) = सब ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करनेवाले प्रभु (परावति) = आज से कितने ही सुदूर काल में (या सना) = जिन सनातन परन्तु (च) = फिर भी (नवा) = इन नवीन ज्ञान की वाणियों को (चुच्युवे) = प्रेरित करते हैं। (ता) = उन ज्ञान की वाणियों को (संसत्सु) = सभाओं में (प्रवोचत) = प्रकर्षेण उच्चरित करो। [२] हम जब भी एकत्रित हों परस्पर ज्ञान की ही चर्चा करें। यह ज्ञान की चर्चा ही हमें पवित्र करेगी। यही हमें सोमरक्षण के योग्य बनाएगी।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सदा से जिन ज्ञानवाणियों की प्रेरणा देते आए हैं, हम मिलने पर उन्हीं का प्रवचन करें। यह ज्ञान में विचरना ही हमें वासना का शिकार होने से बचाएगा।
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