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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 42
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्य॑ ते वि॒श्वमा॑नुषो॒ भूरे॑र्द॒त्तस्य॒ वेद॑ति । वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । ते॒ । वि॒श्वऽमा॑नुषः । भूरेः॑ । द॒त्तस्य॑ । वेद॑ति । वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत् । आ । भ॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते विश्वमानुषो भूरेर्दत्तस्य वेदति । वसु स्पार्हं तदा भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ते । विश्वऽमानुषः । भूरेः । दत्तस्य । वेदति । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥ ८.४५.४२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 42
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That immense wealth discovered by you and collected, of which the people of the world know, bring that cherished treasure into the open and fill the world with it for all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आपल्या व जगाच्या कल्याणासाठी व ऐश्वर्यासाठी सदैव प्रार्थना केली पाहिजे. ॥४२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे महेश ! विश्वमानुषः=सर्वे मनुष्याः । ते=त्वया । दत्तस्य=दत्तम् । भूरेर्बहु । यस्य=यद्धनम् । अत्र कर्मणि षष्ठी । वेदति=जानाति । तत् स्पार्हं वसु आभर ॥४२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे महेश ! (विश्वमानुषः) समस्त मनुष्य (ते) आपके (दत्तस्य) दिए हुए (यस्य) जिस (भूरेः) बहुत दान को (वेदति) जानते हैं, (तत्) उस (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) धन को जगत् में (आभर) भर दो ॥४२ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा से अपने और जगत् के कल्याण के लिये सदा प्रार्थना करनी चाहिये ॥४२ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे स्वामिन् ! ( ते दत्तस्य ) तेरे दिये ( यस्य भूरेः ) जिस बहुत से ऐश्वर्य को ( विश्व मानुषः ) समस्त मनुष्य जानते और प्राप्त करते हैं तू वह ( स्पार्हं वसु आ भर ) चाहने योग्य उत्तम ऐश्वर्य हमें प्राप्त करा। इत्येकोनचत्वारिंशो वर्गः॥ इति तृतीयोऽध्यायः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    विश्वमानुषः

    पदार्थ

    [१] जो केवल अपने लिए न जीकर व्यापक जीवनवाला बनता है, अपने परिवार में औरों को भी सम्मिलित कर लेता है, वह ('विश्वमानुषः') = कहलाता है। प्रभु इसे जिस धन को देते हैं, उसे यह औरों के लिए प्राप्त कराता है। हे प्रभो ! (विश्वमानुषः) = उदार मनोवृत्तिवाला पुरुष (ते) = आपके द्वारा (दत्तस्य) = दिये हुए (भूरेः) = पालन व पोषण करनेवाले (यस्य) = जिसका (वेदति) = औरों के लिए प्रापण कराता है [विद् लाभे] । (तद्) = उस स्पार्हं (वसु) = स्पृहणीय धन को (आभर:) = हमारे लिए प्राप्त कराइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्वार्थी न बनकर 'विश्वमानुष' बनें। यह विश्वमानुष प्रभुप्रदत्त धन को औरों के लिए प्राप्त कराता है। ऐसा ही स्पृहणीय धन हमें भी प्राप्त हों।अपने मन को वश में करनेवाला यह 'वशः' कहलाता है। अपने इन्द्रियाश्वों को उत्तम बनाने के कारण यह 'अश्व्य' है। यह इन्द्र का स्तवन करता हुआ कहता है-

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