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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 23
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा त्वा॑ मू॒रा अ॑वि॒ष्यवो॒ मोप॒हस्वा॑न॒ आ द॑भन् । माकीं॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ वनः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । मू॒राः । अ॒वि॒ष्यवः॑ । मा । उ॒प॒ऽहस्वा॑नः । आ । द॒भ॒न् । माकी॑म् । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । व॒नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा मूरा अविष्यवो मोपहस्वान आ दभन् । माकीं ब्रह्मद्विषो वनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । मूराः । अविष्यवः । मा । उपऽहस्वानः । आ । दभन् । माकीम् । ब्रह्मऽद्विषः । वनः ॥ ८.४५.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 23
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 46; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the fools and scoffers never get round you, even if they profess that they are keen to please you, for protection and support. Never support the negationists of knowledge, piety, existence and divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या जगात नेहमी हे दिसून येते की, द्वेष्टे लोक सदैव नाना प्रकारचे पाप व अपराध करतात, ईश्वरीय नियम मोडतात व ईश्वरभक्तांची निंदा करतात, परंतु आपल्यावर संकट आल्यावर ईश्वराला शरण जाऊन त्यालाही फसवू इच्छितात व तितक्या वेळेपुरते परम भक्त बनतात. त्यासाठी यात प्रार्थना आहे की अशी माणसे उन्नत होता कामा नयेत. ॥२३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वा=त्वाम् । मूराः=मूर्खाः । अविष्यवः=पालनकामा भूत्वा । मा दभन्=मा हिंसन्तु=मा वञ्चयन्तु । आ=पुनः । उप हस्वानः=हास्यपराः । अविष्यवो भूत्वा मा दभन् । हे इन्द्र ! त्वं ब्रह्मद्विषः=वेदद्वेषिणो=ब्राह्मणद्वेषिणश्च । माकीं वनः=मा भजेथाः ॥२३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (त्वा) तुमको (मूराः) मूढ़जन (मा+दभन्) न ठगने पावें तथा (उपहस्वानः) हँसी और दिल्लगी करनेवाले भी तुमको (मा+दभन्) न ठगने पावें । , जब वे (अविष्यवः) आपकी सहायता की आकाङ्क्षा करें और हे ईश (ब्रह्मद्विषः) प्रार्थना, ईश्वर, वेद और ब्राह्मण आदिकों से द्वेष रखनेवालों को आप (माकिम्+वनः) कदापि पसन्द न करें ॥२३ ॥

    भावार्थ

    प्रायः देखा गया है कि संसार के द्वेषी नाना पाप और अपराध सदा करते रहते हैं, ईश्वरीय नियमों को तोड़ डालते हैं । वे न केवल ईश्वरभक्तों की निन्दा किया करते हैं, किन्तु अपने ऊपर आपत्ति आने पर ईश्वर की शरण में जाकर उन्हें भी ठगना चाहते हैं । उतनी देर के लिये परम भक्त बन जाते हैं, अतः इसमें प्रार्थना है कि ऐसे आदमी उन्नत न होने पावें ॥२३ ॥

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    विषय

    मूर्ख और नास्तिकों का संग-त्याग

    शब्दार्थ

    हे जीवात्मन् ! (मूराः) मूढ़, मूर्ख लोग (अविष्यवः) स्वार्थी, भोग-विलासी, लोग (त्वा) तुझे (मा, आ, दभन्) नष्ट न करें, तेरे ऊपर अधिकार न जमायें । (उपहस्वानः) व्वर्थ में ही सबका उपहास करनेवाले मूढ़ भी (मा) मुझे नष्ट न करें । (ब्रह्मद्विषम् ) वेद और ईश्वर से द्वेष करनेवालों का (मा कीं वनः) कभी भी सेवन, सत्सङ्ग मत कर ।

    भावार्थ

    मनुष्य पर सत्सङ्ग का बड़ा प्रभाव पड़ता है। मनुष्य जैसा संग करता है वैसा ही बन जाता है। महापुरुषों के साथ रहने से मनुष्य ऊँचा उठता है और मूर्खों के साथ रहने से महापुरुष भी पतित हो जाता है। प्रस्तुत मन्त्र में मूर्खों और नास्तिकों के संसर्ग से दूर रहने का उपदेश दिया गया है. १. मूढ़ और मूर्ख लोग तेरे ऊपर अधिकार न जमाएँ । मूर्ख लोग अपनी संगति में तुझे नष्ट न कर दें, अतः तू उनका संग छोड़ दे । २. स्वार्थी और भोग-विलासी लोग सदा अपने शरीर की पुष्टि और तुष्टि में ही उलझे रहते हैं, ऐसे व्यक्ति मनुष्य को आत्म-पथ की ओर चलने ही नही देते, अतः उनका संग भी छोड़ देना चाहिए । ३. धर्म और ईश्वर की हँसी उड़ानेवाले व्यक्तियों से भी सदा बचना चाहिए । ४. जो वेद और ईश्वर के न माननेवाले व्यक्ति हैं उनसे दूर ही रहना चाहिए ।

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    विषय

    उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( अविष्यवः ) हिंसाशील ( मूराः ) घातक लोग ( त्वा मा आदभन् ) तुझे नाश न करें और ( मा उपहस्वानः ) उपहास करने वाले जन भी तुझे हानि न पहुंचावें। ( ब्रह्म-द्विषः ) वेद के, ब्राह्मण वर्ग के और तेरे धन के द्वेषी जनों का तू ( माकीं वनः ) संग मत कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    किनके संग से बचना ?

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (अविष्यवः) = [अव्-हिंसा, आदान] औरों की हिंसा से सांसारिक ऐश्वर्यों का आदान करनेवाले, (उपहस्वानः) = धर्म व नैतिक मार्ग का उपहास करनेवाले (मूराः) = विषयों से मूढ़ बने हुए लोग (त्वा) = आपको (मा आदभन्) = हिंसित करनेवाले न हों। इनके दबाव में तू भी इनके रंग में न रंगा जाए। [२] (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान व प्रभु के प्रति न प्रीतिवाले लोगों को (माकीं वनः) = सेवन करनेवाला न हो। ऐसों के संग में मत उठ बैठ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम विषयमूढ़, हिंसा से संग्रह की प्रवृत्तिवाले, धामक बातों का उपहास करनेवाले, ज्ञान की प्रति अरुचिवाले लोगों का संग न करें।

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