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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 38
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒वारे॑ वृषभा सु॒तेऽसि॑न्व॒न्भूर्या॑वयः । श्व॒घ्नीव॑ नि॒वता॒ चर॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒वारे॑ । वृ॒ष॒भ॒ । सु॒ते । असि॑न्वन् । भूरि॑ । आ॒व॒यः॒ । श्व॒घ्नीऽइ॑व । नि॒ऽवता॑ । चर॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवारे वृषभा सुतेऽसिन्वन्भूर्यावयः । श्वघ्नीव निवता चरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एवारे । वृषभ । सुते । असिन्वन् । भूरि । आवयः । श्वघ्नीऽइव । निऽवता । चरन् ॥ ८.४५.३८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 38
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Generous and virile Indra, come to the yajna and the soma celebration, youthful, insatiable like a player going to the hall of contest, and give us inexhaustible food and energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर संपूर्ण मनोरथदाता असल्यामुळे वृषभ म्हटलेले आहे. त्यासाठी हे माणसांनो! त्याची सेवा करा व त्यालाच आपल्या अपेक्षित वस्तू मागा ॥३८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे वृषभ=कामानां वर्षितरिन्द्र ! एवारे=परमप्रिये । अस्माकम् । सुते=शुभकर्मणि । भूरि=भूरीणि=बहूनि धनानि । असिन्वन्=अबध्नन् । ददत् सन् । आवयः=आगच्छ । अत्र दृष्टान्तः । निवता=द्यूतेन । चरन् । श्वघ्नीव=यथा कितवः । सभास्थानमागच्छति ॥३८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वृषभ) हे सकलमनोरथपूरक महादेव ! हमारे इस (एवारे) परमप्रिय (सुते) शुभकर्म में (भूरि) बहुत धन (असिन्वन्) देता हुआ तू (आवयः) आ । (इव) जैसे (निवता+चरन्) द्यूत खेलता हुआ (श्वघ्नी) कितव=जुआरी सभास्थान में आता है ॥३८ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा सकलमनोरथदाता होने के कारण वृषभ कहाता है । अतः हे मनुष्यों ! उसी की सेवा करो और उसी से अपनी आकाङ्क्षित वस्तु माँगो ॥३८ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    ( श्वघ्नी इव ) अपना द्रव्य नाश करने वाला, वा अपने आश्रित जन को मारने वाला, जिस प्रकार ( निवता चरन् ) लज्जा से नीचा मुख करके चलता है, हे ( वृषभ ) पुरुष ( एवारे ) आदरों से प्राप्त होने योग्य तेरे ( सुते ) ऐश्वर्य प्राप्त होजाने पर, ( आवयः ) नाना रक्षक जन ( भूरि असिन्वन् ) बहुत बांध लेते हैं और ( निवता चरन् ) नम्र शिर होकर आचरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    आवयः

    पदार्थ

    [१] हे (वृषभ) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभो ! (एवारे) = [एव+अर = ॠ गतौ ] गतमन्त्र में वृणत प्रकार से गति के होने पर, (सुते) = सोम का सम्पादन करने पर (आवयः) = सोम का रक्षण करनेवाले लोग (भूरि) = खूब ही (असिन्वन्) = इस सोम को शरीर में बद्ध करते हैं। [२] यह सोमरक्षक पुरुष (श्वघ्नीव इव कितव) = [जुआरी] की तरह (निवता चरन्) = नम्रता के मार्ग से [निम्न मार्ग से] गतिवाला होता है। जैसे एक जुआरी धननाश से लज्जित होकर नम्र सा बन जाता है, इसी प्रकार यह सोमरक्षक नम्रतावाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - अपना रक्षण करनेवाले सोम का शरीर में बन्धन करते हैं। ये अपने जीवन में नम्रता के स्वभाववाले होते हैं।

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