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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒ग्रं यु॑युज्म॒ पृत॑नासु सास॒हिमृ॒णका॑ति॒मदा॑भ्यम् । वेदा॑ भृ॒मं चि॒त्सनि॑ता र॒थीत॑मो वा॒जिनं॒ यमिदू॒ नश॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रम् । यु॒यु॒ज्म॒ । पृत॑नासु । स॒स॒हिम् । ऋ॒णऽका॑तिम् । अदा॑भ्यम् । वेद॑ । भृ॒मम् । चि॒त् । सनि॑ता । र॒थिऽत॑मः । वा॒जिन॑म् । यम् । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नश॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रं युयुज्म पृतनासु सासहिमृणकातिमदाभ्यम् । वेदा भृमं चित्सनिता रथीतमो वाजिनं यमिदू नशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रम् । युयुज्म । पृतनासु । ससहिम् । ऋणऽकातिम् । अदाभ्यम् । वेद । भृमम् । चित् । सनिता । रथिऽतमः । वाजिनम् । यम् । इत् । ऊँ इति । नशत् ॥ ८.६१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The blazing vibrant lord of existence, we join in the battles of life from strife upto communion, the power and presence most bold and courageous, indomitable, to whom we owe the debt of allegiance. Whoever approaches him thus as the ever moving spirit at the closest as a friend, munificent giver, sole controller of the chariot of life and the universe, the ultimate warrior and conqueror, realises him, joins him, becomes identified with him as the self itself.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुख असो की दु:ख, सर्वकाळी त्याच्या आश्रयाने राहावे. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सर्वत्रेश्वर एव प्रार्थ्य इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    वयमुपासकाः । पृतनासु=संग्रामे । उग्रं= न्यायपरतयोग्रत्वेन प्रसिद्धमीश्वरमेव । युयुज्म= योजयामः=प्रार्थयाम इत्यर्थः । कीदृशम् । सासहिम्=अन्यायिनामभिभवितारम् । पुनः । ऋणकातिम्= ऋणमिवावश्यफलप्रदम् । पुनः । अदाभ्यम्=अदमनीयम्-अविनश्वरम् । पुनः । यश्चेश्वरः । सनिता=सुखप्रदाता । रथीतमः=संसाररूपमहारथस्य स्वामी । ईदृशः सः । भृमंचित् भर्तारं=जनसुखकरमुपासकम् । वेद=वेत्ति । पुनः । वाजिनं=संग्रामकारिणमुपकाराय वेत्ति । यमिद्+ऊ= यमेव खलु । नशत्=प्राप्नोति ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सर्वत्र ईश्वर ही प्रार्थनीय है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! हम उपासकगण (पृतनासु) भयङ्कर संग्रामों में भी (उग्रम्) न्यायी होने के कारण लोक में उग्रत्वेन प्रसिद्ध परमात्मा की ही (युयुज्म) प्रार्थना करते हैं । उसी के न्याय पर विजय की आशा रखते हैं, जो परमात्मा (सासहिम्) सदा अन्यायी को दबाता है, (ऋणकातिम्) जो ऋण के समान अवश्य फल दे रहा है, (अदाभ्यम्) जिसको सम्पूर्ण संसार भी परास्त नहीं कर सकता, (सनिता) जो अवश्य कर्मानुसार सुख दुःख का विभाग करनेवाला है (रथीतमः) संसाररूप महारथ का वही एक स्वामी है पुनः वह (भृमंचित्) मनुष्यों को पोषण करनेवाले को भी (वेद) जानता है अर्थात् कौन पुरुष उपकारी है, उसको भी जानता है और (वाजिनम्) धर्म और सुख के लिये कौन युद्ध कर रहा है, उसको भी जानता है । (यम्+इत्+ऊ) जिसके निकट (नशत्) वह पहुँचता है, वही विजयी होता है ॥१२ ॥

    भावार्थ

    सुख या दुःख सब काल में उसी के आश्रय में रहना चाहिये ॥१२ ॥

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    विषय

    उत्तम रथोवत् प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    ( यम् इत् उ ) जिसको प्रजाजन ( वाजिनं ) ऐश्वर्यवान् बलवान् भी ( नशत् ) पावें, और जो ( रथीतम ) सब से उत्तम महारथी, (सनिता) दानशील हो और जिसको हम ( भृमं चित् ) भरण पोषण में समर्थ ( वेद ) पावें उस ( सासहिम् ) शत्रुपराजयकारी, ( उग्रम् ) सदा दण्डधारी, ( ऋणकातिम् ) धनोत्पादक, ( आदाभ्यम् ) अहिंसनीय, अवध्य, पुरुष को हम ( पृतनासु ) संग्रामों के कार्यों में (युयुज्म) नियुक्त करें। ( २ ) इसी प्रकार हम परमेश्वर को इन २ गुण विशिष्ट रूप से ( युयुज्म ) योग द्वारा साक्षात् करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभुस्तवनरूप दुर्ग

    पदार्थ

    [१] हम (उग्रं) = उस तेजस्वी प्रभु को (युयुज्म) = योग द्वारा प्राप्त करें, जो प्रभु (पृतनासु सासहिम्) = संग्रामों में शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, (ॠणकातिं) = दुर्गभूमिरूप है स्तुति जिनकी अर्थात् जिनकी स्तुति एक किले के समान शत्रुओं के आक्रमण से हमारा रक्षण करती है(अदाभ्यम्) = जो हिंसित होनेवाले नहीं। [२] जैसे (रथीतमः) = उत्तम सारथि (भृमं चित्) = भ्रमणशील अश्व को ही वेद प्राप्त करता है, इसी प्रकार वह सनिता सब कुछ देनेवाले प्रभु (यम् इत् उ) = जिसको ही (वाजिनं) = शक्तिशाली [वेद] जानता है, उसी को (नशत्) = प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन स्तोता के लिए एक दुर्ग के समान होता है। यह स्तवन शत्रुओं के आक्रमण से उसका रक्षण करता है। प्रभु सबल को ही प्राप्त होते हैं।

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