ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 14
त्वं हि रा॑धस्पते॒ राध॑सो म॒हः क्षय॒स्यासि॑ विध॒तः । तं त्वा॑ व॒यं म॑घवन्निन्द्र गिर्वणः सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । रा॒धः॒ऽप॒ते॒ । राध॑सः । म॒हः । क्षय॑स्य । असि॑ । वि॒ध॒तः । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । सु॒तऽव॑न्तः । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि राधस्पते राधसो महः क्षयस्यासि विधतः । तं त्वा वयं मघवन्निन्द्र गिर्वणः सुतावन्तो हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । राधःऽपते । राधसः । महः । क्षयस्य । असि । विधतः । तम् । त्वा । वयम् । मघऽवन् । इन्द्र । गिर्वणः । सुतऽवन्तः । हवामहे ॥ ८.६१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of the world’s wealth, munificence and achievement, you alone are the protector, and promoter of the wealth, grandeur, home and honour of the supplicant worshipper. O lord of all power and honour, adored and worshipped in hymns of glory, we invoke, invite and exalt you for the munificence and grandeur of life you grant, protect and advance.
मराठी (1)
भावार्थ
तो ईश्वरच धनपती व गृहपती आहे. त्याच्या कृपेने माणसाचे घर सुखी व वर्धिष्णु होते. विद्वानांनो! त्यासाठी त्याचीच आराधना करा. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे राधस्पते=राधसां धनानां स्वामिन् ! त्वं हि । विधतः=स्वसेवकस्योपकारिणः सत्याश्रयस्य च जनस्य । महः=महतो राधसो धनस्य । क्षयस्य=निवासस्थानस्य च । वर्धयिता । असि=भवसि । हे मघवन् ! हे इन्द्र ! हे गिर्वण=गीर्भिर्वननीय ! सुतावन्तः=शुभकर्मवन्तो वयम् । तं त्वा हवामहे ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(राधस्पते) हे सर्वधनस्वामी ! (त्वम्+हि) तू (विधतः) स्वसेवक, उपकारी और सत्यपक्षावलम्बी पुरुष के (महः+राधसः) महान् धन को और (क्षयस्य) उसके वासस्थान को (असि) बढ़ानेवाला होता है । (मघवन्) हे परमधनिन् (इन्द्र) हे इन्द्र ! (गिर्वणः) हे लौकिक वैदिक वचनों से स्तवनीय ईश ! (सुतावन्तः) शुभकर्मी (वयम्) हम उपासक (तम्+त्वा) उस तुझको (हवामहे) साहाय्य के लिये पुकार रहे हैं, आपकी प्रार्थना स्तुति कर रहे हैं, वह तू हमारा सहायक हो ॥१४ ॥
भावार्थ
वह ईश्वर ही धनपति और गृहपति है । उसी की कृपा से मनुष्य का गृह सुखमय और वर्धिष्णु होता है । विद्वानो ! अतः उसी की आराधना करो ॥१४ ॥
विषय
प्रभु से अभय की याचना।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) पूज्य ऐश्वर्ययुक्त ! हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा। याचना करने योग्य ! हे ( इन्द्र ) शत्रुनाशक ! ऐश्वर्य के देने हारे ! (वयं) हम ( सुतावन्तः ) उत्पन्न, अन्नादि ऐश्वर्यों से युक्त होकर भी ( त्वा ) तुझ से ( हवामहे ) याचना करते हैं, क्योंकि हे ( राधसः पते ) धन के पालक स्वामिन् ! ( त्वं हि ) तू अवश्य ( विधतः ) कार्य करने वाले, सेवक के ( महः ) बड़े भारी, ( क्षयस्य ) ऐश्वर्य और ( राधसः ) धन का भी बढ़ाने और देने वाला है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राधस् तथा महान् क्षय
पदार्थ
[१] हे (राधस्पते) = ऐश्वर्य के स्वामिन् प्रभो ! (त्वं) = आप (हि) = निश्चय से (विधतः) = परिचर्या [उपासना] करनेवाले उपासक के (राधसः) = ऐश्वर्य के तथा (महः क्षयस्य) = महान् निवासस्थान के [क्षि निवासगत्योः] (असि) = [वर्धयिता] बढ़ानेवाले हैं। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन्, (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों से सेवनीय (इन्द्र) = शत्रु - विद्रावक प्रभो ! (सुतावन्तः) = सोम का सम्पादन करनेवाले (वयं) = हम (तं त्वा) = उन आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। आपकी हम उपासना करते हैं। आपकी उपासना ही हमारे अभ्युदय का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ-सोम का रक्षण करते हुए हम प्रभु की उपासना करते हैं। उपासित प्रभु हमारे लिए ऐश्वर्य के देनेवाले होते हैं।
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