ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 9
अ॒वि॒प्रो वा॒ यदवि॑ध॒द्विप्रो॑ वेन्द्र ते॒ वच॑: । स प्र म॑मन्दत्त्वा॒या श॑तक्रतो॒ प्राचा॑मन्यो॒ अहं॑सन ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वि॒प्रः । वा॒ । यत् । अवि॑धत् । विप्रः॑ । वा॒ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । वचः॑ । सः । प्र । म॒म॒न्द॒त् । त्वा॒ऽया । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शातऽक्रतो । प्राचा॑मन्यो॒ इति॑ प्राचा॑ऽमन्यो । अह॑म्ऽसन ॥
स्वर रहित मन्त्र
अविप्रो वा यदविधद्विप्रो वेन्द्र ते वच: । स प्र ममन्दत्त्वाया शतक्रतो प्राचामन्यो अहंसन ॥
स्वर रहित पद पाठअविप्रः । वा । यत् । अविधत् । विप्रः । वा । इन्द्र । ते । वचः । सः । प्र । ममन्दत् । त्वाऽया । शतक्रतो इति शातऽक्रतो । प्राचामन्यो इति प्राचाऽमन्यो । अहम्ऽसन ॥ ८.६१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of infinite holy acts of kindness, commanding irresistible adour and passion, whether one is a sagely scholar or a simple unlettered person, whoever offers words of praise and prayer to you is blest with divine joy by your grace, O lord of the name “I AM”.
मराठी (1)
भावार्थ
अहंसन - ‘अहम’ हे नाव परमेश्वराचे यासाठी आहे की, तोच मुख्य आहे. त्याचासारखा दुसरा कुणी नाही. त्याची स्तुती प्रार्थना महापंडितापासून महामूर्खापर्यंत आपापल्या भाषेद्वारे करावी. जो मन, प्रेम व श्रद्धेने स्तुती करेल तो अवश्य सुखी होईल. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे शतक्रतो=अनन्तकर्मन् ! हे प्राचामन्यो=प्राचीनक्रोध-अप्रतिहतक्रोध ! हे अहंसन= अहंनामन् ! अविप्रो वा=स्तुतिकरणे अकुशलो वा यद्वा मूर्खो वा । विप्रो वा=मेधावी जनो वा । ते=तव । यद्=यदा-२ । वचः=स्तुतिरूपं वचनम् । अविधत्=करोति । तदा-२ सः । त्वाया=तव साहाय्येन तवानुग्रहेण सर्वं प्राप्य । प्र=प्रकर्षेण । ममन्दत्=मोदते आनन्दति ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (शतक्रतो) हे अनन्त-२ कर्मा (प्राचामन्यो) हे अप्रतिहतक्रोध (अहंसन) हे अहं नाम जगदीश ! (अविप्रः+वा) अविप्र या (विप्रः+वा) विप्र (यद्) जब-२ (ते+वचः) तेरी स्तुति प्रार्थना और उपासना (अविधत्) करता है, तब-२ (त्वाया) तेरी कृपा से (सः) वह स्तुतिकर्त्ता (प्र+ममन्दत्) जगत् में सब सुख पाकर आनन्द करता है । धन्य तू है । तेरी ही स्तुति मैं भी करूँ ॥९ ॥
भावार्थ
अहंसन−“अहम्” यह नाम परमात्मा का इसलिये है कि वही एक मुख्य है, दूसरा उसके सदृश नहीं । उसकी स्तुति प्रार्थना ब्राह्मण से लेकर महा मूर्ख तक अपनी-२ भाषा द्वारा करे । जो मन, प्रेम और श्रद्धा से स्तुति करेगा, वह अवश्य सुखी होगा ॥९ ॥
विषय
परमेश्वर के ध्यान ज्ञान से कर्म करने वाला पवित्र हृदय होता है।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! हे ( शतक्रतो ) सैंकड़ों कर्म सामर्थ्य और प्रज्ञा से सम्पन्न जन ! हे ( प्राचा-मन्यो ) सर्वोत्कृष्ट ज्ञान से ज्ञानशालिन् ! हे ( अहं-सन ) आत्मभाव, आत्मसन्मान के भाव को देनेहारे ! (अविप्रः वा) चाहे अबुद्धिमान् हो और चाहे ( विप्रः ) विद्वान् पुरुष भी ( ते वचः अविधत् ) तेरे कहे वचन के अनुसार कार्य करता वह भी ( त्वाया ) तेरे अधीन रहकर ( प्र ममन्दत् ) बहुत ही सुख, आनन्द प्राप्त कर लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु की आज्ञा का पालन से आनन्द
पदार्थ
[१] हे (शतक्रतो) = अनन्त शक्तिवाले, (प्राचामन्यो) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञानशालिन् (अहंसन) = आत्मसम्मान के भाव को देनेहारे (इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अविप्रः वा) = अल्प ज्ञानवाला व्यक्ति (वा) = अथवा (विप्र) = ज्ञानी जो कोई भी (यद्) = जब (ते वचः अविधत्) = आपके वचन का [निर्देश का ] पालन करता है, (सः) = वह (त्वाया) = आपकी प्राप्ति की कामना से (प्रममन्दत्) = प्रकृष्ट आनन्द को प्राप्त करता है। [२] ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। ज्ञानप्राप्ति का भी उद्देश्य यही है कि हम प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलें - प्रभु की आज्ञाओं को मानें। जब प्रभु के आदेशों का पालन करते हुए हम चलते हैं तो आनन्द की प्राप्ति होती ही है। बनाने पर जीवन में एक अद्भुत आनन्द
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के निर्देशों के अनुसार यज्ञात्मक जीवन की अनुभूति होती है।
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