ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
आ वृ॑षस्व पुरूवसो सु॒तस्ये॒न्द्रान्ध॑सः । वि॒द्मा हि त्वा॑ हरिवः पृ॒त्सु सा॑स॒हिमधृ॑ष्टं चिद्दधृ॒ष्वणि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वृ॒ष॒स्व॒ । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । सु॒तस्य॑ । इ॒न्द्र॒ । अन्ध॑सः । वि॒द्म । हि । त्वा॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । पृ॒त्ऽसु । स॒स॒हिम् । अधृ॑ष्टम् । चि॒त् । द॒धृ॒ष्वणि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वृषस्व पुरूवसो सुतस्येन्द्रान्धसः । विद्मा हि त्वा हरिवः पृत्सु सासहिमधृष्टं चिद्दधृष्वणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वृषस्व । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । सुतस्य । इन्द्र । अन्धसः । विद्म । हि । त्वा । हरिऽवः । पृत्ऽसु । ससहिम् । अधृष्टम् । चित् । दधृष्वणिम् ॥ ८.६१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of universal wealth, honour and excellence, haven and home of all life in existence, give us showers of the purest distilled soma, food for health and divine joy. O lord of the dynamics of existence, we know you, fearless and unconquerable hero in battles.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरच सर्व धनांचा पती आहे. तोच जगाला सुख देतो. तोच उपास्यदेव आहे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे पुरुवसो=बहुधन=सर्वधन ! हे इन्द्र=परमेश ! त्वम् । सुतस्य+अन्धसः=यज्ञियं पूज्यमन्नम् । येन रोगादिनिवृत्तिः स्यात् । आवृषस्व=जगति=आसिञ्च । हि=निश्चयेन । वयं त्वा विद्म । हे हरिवः=संसारवन् ! कीदृशं त्वा । पृत्सु=पूर्णेषु संसारेषु । सासहिं=दुष्टानामभिभवितारम् । अधृष्टं चित्=कैश्चिदपि न धर्षणीयम् । पुनः । दधृष्वणिम्=अन्येषां धर्षकम् ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(पुरुवसो) हे बहुधन हे सर्वधन (इन्द्र) हे परमेश ! तू जगत् के कल्याण के लिये (सुतस्य) पवित्र जो मनुष्य हितकारी हो, वैसा (अन्धसः) अन्न (आवृषस्व) चारों तरफ सींच । (हि) निश्चय करके हम (त्वा+विद्म) तुझको जानते हैं कि तू महाधनिक है । क्योंकि (हरिवः) हे संसारवान् ! जो तू संसार का अधीश्वर है और (पृत्सु+सासहिम्) सम्पूर्ण जगत् में दुष्टों का शासन करनेवाला है (अधृष्टम्) तुझको कोई दबा नहीं सकता (दधृष्वणिम्) तू सबको दबा सकता है ॥३ ॥
भावार्थ
ईश्वर ही सब धन का अधिपति है, वही जगत् में सबको सुख पहुँचाता है, वही उपास्यदेव है ॥३ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( पुरु-वसो ) बहुत से प्रजाजनों को बसाने वाले ! बहुत ऐश्वर्य के स्वामिन् ! इन्द्रियों में शक्तिरूप से आत्मवत् प्रभो ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! तू ( अन्धसः सुतस्य ) अन्न और ऐश्वर्य से ( आ वृषस्व ) सब प्रकार से प्रजा पर सुखों की वर्षा करने वाला और बलवान् हो। हे ( हरिवः ) अश्वों और मनुष्यों के राजन् ! हम ( त्वा ) तुझ को ( पृत्सु ) संग्रामों में ( सासहिम् ) विजयी, (अधृष्टम् ) अपराजित और (दष्टष्वणिम् ) शत्रुओं के पराजित करने हारा ( हि ) ही ( विद्म ) जानते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'अधृष्ट दधृष्वणि' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (पुरूवसो) = पालक व पूरक वसुओंवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आप (सुतस्य) = उत्पन्न हुए-हुए (अन्धसः) = सोम का (आवृषस्व) = हमारे अंग-प्रत्यंग में सेचन करिये। आपका उपासन हमें वासनाओं से बचाकर सोमरक्षण के योग्य बनाए। [२] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! हम (त्वा) = आपको (हि) = निश्चय से (विद्म) = जानते हैं कि आप (पृत्सु) = संग्रामों में (सासहिम्) = शत्रुओं को कुचलनेवाले हैं। (अधुष्टं चित्) = निश्चय से अधर्षणीय हैं और (दधृष्वणिम्) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्मरण हमारे शरीरों में सोम रक्षण का साधन बनता है। इस प्रकार प्रभु हमें संग्रामों में विजयी व अधर्षणीय बनाते हैं।
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