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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यत॑ इन्द्र॒ भया॑महे॒ ततो॑ नो॒ अभ॑यं कृधि । मघ॑वञ्छ॒ग्धि तव॒ तन्न॑ ऊ॒तिभि॒र्वि द्विषो॒ वि मृधो॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यतः॑ । इ॒न्द्र॒ । भया॑महे । ततः॑ । नः॒ । अभ॑यम् । कृ॒धि । मघ॑ऽवन् । श॒ग्धि । तव॑ । तम् । नः॒ । ऊ॒तिऽभिः । वि । द्विषः॑ । वि । मृधः॑ । ज॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि । मघवञ्छग्धि तव तन्न ऊतिभिर्वि द्विषो वि मृधो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यतः । इन्द्र । भयामहे । ततः । नः । अभयम् । कृधि । मघऽवन् । शग्धि । तव । तम् । नः । ऊतिऽभिः । वि । द्विषः । वि । मृधः । जहि ॥ ८.६१.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord indomitable, whoever, whatever and wherever we fear, make us fearless from that. O lord of might and world power, pray strengthen us with your powers and protections of the highest order. Eliminate the jealous, the malignant, the disdainers and contemners.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आमचे शत्रू असतील किंवा अहित चिंतक असतील त्यांना ईश्वरीय न्यायावर सोपवा ॥१३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यतः=दुष्टात् पुरुषात् । वयं भयामहे=बिभीमः । ततस्तस्मात् । नः=अस्मभ्यम् । अभयं+कृधि=कुरु देहि । हे मघवन्=परमधनवन् ! अस्मान् । शग्धि=समर्थान् कुरु । तव । तत्=ताभिः । ऊतिभिः । नः=अस्माकम् । द्विषः=द्वेष्टॄन् । विजहि । मृधः=हिंसकांश्च । विजहि=विनाशय ॥१३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) परमैश्वर्य्यशाली महान् देव ! (यतः) जिस दुष्ट और पापादि से हम (भयामहे) डरते हैं, (ततः) उससे (नः) हमको (अभयम्+कृधि) अभय दान दे । (मघवन्) हे अतिशय धनाढ्य ! (शग्धि) हमको सर्व कार्य्य में समर्थ कर । (तव) तू अपनी (तत्+ऊतिभिः) उन प्रसिद्ध रक्षाओं से (नः) हमारे (द्विषः) शत्रुओं को (विजहि) हनन कर (मृधः) जगत् को हानि पहुँचानेवाले हिंसक पुरुषों को (वि) दूर कर ॥१३ ॥

    भावार्थ

    जो हमारे शत्रु हों या अहितचिन्तक हों, उनको ईश्वरीय न्याय पर छोड़ो ॥१३ ॥

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    विषय

    प्रभु से अभय की याचना।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) शत्रुनाशक ! भूमि के रक्षक ! अन्नादि दातः ! हम लोग ( यतः भयामहे ) जिस कारण से भी भय करें तू ( ततः नः अभयं कृधि) हमें उस भय से रहित कर। हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( तव ) अपना (नः) हमें (तत् शग्धि ) वह सामर्थ्य दे और ( ऊतिभिः ) रक्षाकारिणी शक्तियों से ( द्विषः वि जहि ) शत्रुओं को दण्डित कर और ( मृधः वि जहि ) हिंसकों को दण्डित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अभयकर्ता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (यतः) = जिधर से भी हम (भयामहे) = भयभीत हों, (ततः) = उधर से (न:) = हमें (अभयं कृधि) = निर्भय कीजिए। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (शग्धि) = आप शक्तिशाली हो। (तत्) = सो (तव ऊतिभिः) = अपने रक्षणों के द्वारा (नः) = हमारे (विद्विषः) = द्वेषियों व (विमृधः) = हिंसकों को (जहि) = नष्ट करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें सर्वतः निर्भय करते हैं। हे प्रभो! आप हमारे द्वेषियों व हिंसकों को समाप्त करिये।

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