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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    इन्द्र॒: स्पळु॒त वृ॑त्र॒हा प॑र॒स्पा नो॒ वरे॑ण्यः । स नो॑ रक्षिषच्चर॒मं स म॑ध्य॒मं स प॒श्चात्पा॑तु नः पु॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । स्पट् । उ॒त । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒रः॒ऽपाः । नः॒ । वरे॑ण्यः । सः । नः॒ । र॒क्षि॒ष॒त् । च॒र॒मम् । सः । म॒ध्य॒मम् । सः । प॒श्चात् । पा॒तु॒ । नः॒ । पु॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र: स्पळुत वृत्रहा परस्पा नो वरेण्यः । स नो रक्षिषच्चरमं स मध्यमं स पश्चात्पातु नः पुरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । स्पट् । उत । वृत्रऽहा । परःऽपाः । नः । वरेण्यः । सः । नः । रक्षिषत् । चरमम् । सः । मध्यमम् । सः । पश्चात् । पातु । नः । पुरः ॥ ८.६१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra is all cognizant, destroyer of evil and universal protector, and him alone we ought to choose for worship and prayer. May he protect us all, the highest, the middling and the lowest, and may he protect us at the far back and the farthest coming up front.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ईश! तू आमचे सगळीकडून रक्षण कर, कारण तू सर्व पापी व धर्मात्मा यांना जाणतोस ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    इन्द्रः । स्पट्=सर्वस्य ज्ञाताऽस्ति । स्पशतिर्ज्ञानकर्मा । उत=अपि च । वृत्रहास्ति । पुनः । परस्पाः=परेभ्यः शत्रुभ्यः पालयिता । पुनः । नः=अस्माकम् । वरेण्यः=पूज्यः । स नो रक्षिषत्=रक्षतु । स चरममन्तिमम् । स मध्यमञ्च रक्षतु । स नः पश्चात् पातु । पुरः=पुरस्ताच्च पातु ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्रः) वह परमात्मा (स्पट्) सबका मन जानता है (उत) और (वृत्रहा) सर्वविघ्ननिवारक है, (परस्पाः) शत्रुओं से बचानेवाला है और (नः+वरेण्यः) हमारा पूज्य स्वीकार्य और स्तुत्य है । (सः+नः+रक्षिषत्) वह हमारी रक्षा करे, (सः+चरमम्) अन्तिम पुत्र या पितामहादि की रक्षा करे, (सः+मध्यमम्) वह मध्यम की रक्षा करे, (सः+नः+पश्चात्) वह हमको पीछे से और (पुरः) आगे से (पातु) बचावे ॥१५ ॥

    भावार्थ

    हे ईश ! तू हमारी सब ओर से रक्षा कर, क्योंकि तू सब पापी और धर्मात्मा को जानता है ॥१५ ॥

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    विषय

    प्रभु से अभय की याचना।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) शत्रुओं का नाशक, ऐश्वर्यों का दाता, प्रभु ( स्पट् ) सर्वद्रष्टा, ( वृत्रहा ) सब विघ्नों का नाशक ( परः-पाः ) परम पालक और ( नः वरेण्यः ) हमारा सर्वश्रेष्ठ वरण करने योग्य है। (सः) वह ( नः ) हममें से ( चरमं ) अन्तिम को, ( सः मध्यमं ) वह बीच के को, (सः पश्चात् पुरः नः पातु) वह हमारे पीछे और आगे से भी हमें बचा। इत्यष्टात्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्पट् उत वृत्रहा

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (स्पट्) = सर्वद्रष्टा व सर्वज्ञ हैं, (उत) = और (वृत्रहा) = वासना को विनष्ट करनेवाले हैं। (परस्परः) = [परस्मात् पाति] शत्रुओं से रक्षित करनेवाले हैं और (न:) = हमारे लिए (वरेण्यः) = वरणीय हैं। [२] (सः) = वे प्रभु (नः) = हमारे (चरमं) = जीवन के अन्तिम भाग को (रक्षिषत्) = रक्षित करें, (सः मध्यमं) = वे प्रभु जीवन के मध्यभाग [यौवन] को भी रक्षित करें। बाल्य को तो प्रभु माता-पिता व आचार्यों द्वारा रक्षित करते ही हैं। वे जीवन के यौवन व वार्धक्य के भी रक्षक हों । (सः) = वे प्रभु (पश्चात्) = पीछे से (पातु) = रक्षित करें तथा (नः) = हमें (पुरः) = सामने से [पातु = ] रक्षित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे सर्वद्रष्टा प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करते हुए हमें शत्रुओं से रक्षित करें। वे आगे-पीछे सब ओर से हमारा रक्षण करें।

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