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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - पाद्निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    त्वं ह्येहि॒ चेर॑वे वि॒दा भगं॒ वसु॑त्तये । उद्वा॑वृषस्व मघव॒न्गवि॑ष्टय॒ उदि॒न्द्राश्व॑मिष्टये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । आ । इ॒हि॒ । चेर॑वे । वि॒दाः । भग॑म् । वसु॑त्तये । उत् । व॒वृ॒ष॒स्व॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । गोऽइ॑ष्टये । उत् । इ॒न्द्र॒ । अश्व॑म्ऽइष्टये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह्येहि चेरवे विदा भगं वसुत्तये । उद्वावृषस्व मघवन्गविष्टय उदिन्द्राश्वमिष्टये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । आ । इहि । चेरवे । विदाः । भगम् । वसुत्तये । उत् । ववृषस्व । मघऽवन् । गोऽइष्टये । उत् । इन्द्र । अश्वम्ऽइष्टये ॥ ८.६१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come to give gifts of wealth and honour to the devotee so that the people may be happy and prosperous. O lord of honour and majesty, Indra, bring us showers of the wealth of cows, lands, knowledge and culture for the seekers of light, and horses, advancement and achievement for the seekers of progress.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराची प्रार्थना, त्याच्यावर पूर्ण विश्वास व जगात पूर्ण उद्योग करून सर्वांनी सुखी व्हावे. दीन हीन राहणे एक प्रकारचे पापच आहे. त्यासाठी वेदात वारंवार धनासाठी प्रार्थना केली जाते. भिक्षावृत्तीची चर्चा वेदात नाही. हेही पापच आहे. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वं हि=त्वं खलु । चेरवे=स्वभक्तमुद्धर्त्तुम् । एहि=आगच्छ । वसुत्तये=जनान् वसुमत्तमान् कर्तुम् । भगं=परमैश्वर्यम् । विदाः=लभस्व=देहि । हे मघवन्=परमधनवन् ईश ! त्वम् । गविष्टये=गोकामाय जगते । उद्ववृषस्व=उत्सिञ्चस्व । हे इन्द्र ! अश्वमिष्टये=अश्वकामाय जगते । उद्ववृषस्व । जगते गा अश्वांश्च देहीत्यर्थः ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (त्वम्+हि) तू अवश्य ही (चेरवे) स्वभक्तजनों के उद्धार के लिये जगत् में (एहि) आ और (वसुत्तये) मनुष्यों को अतिशय धनिक बनाने के लिये (भगम्+विदाः) परमैश्वर्य दे । तथा (मघवन्) हे परमैश्वर्ययुक्त (इन्द्र) हे महेश ! (गविष्टये) गौ आदि पशुओं को चाहनेवाले जगत् को गवादि पशुओं की (उद्+ववृषस्व) बहुत वर्षा कर तथा (अश्वमिष्टये) अश्व आदि पशुओं को चाहनेवाले जगत् को अश्वादि पशुओं की (उद्) बहुत वर्षा कर ॥७ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर की प्रार्थना, उस पर पूर्ण विश्वास और जगत् में पूर्ण उद्योग करके सब कोई सुखी होवें । दीन हीन रहना एक प्रकार का पाप ही है, अतः वेद में वारंवार धन के लिये प्रार्थना आती है । भिक्षावृत्ति की चर्चा वेद में नहीं है । यह भी पाप ही है ॥७ ॥

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    विषय

    मैं तुझे चाहता हूँ

    शब्दार्थ

    (मघवन्) हे उत्तम धनों के स्वामिन् ! (भगम् ) ऐश्वर्य, धनसम्पत्ति (वसुत्तये) धन चाहनेवालों को (विदाः) दे दे । (गो, इष्टये) गौएँ, गौ की कामना, याचना करनेवालों के लिए (उत् वावृषस्व ) लुटा दे, दे डाल । (अश्वम् इष्टये) घोड़े, घोड़े माँगनेवालों के लिए दे डाल । (इन्द्र) परमात्मन् ! (चेरवे) अपने उपासक के प्रति (त्वं हि) तू ही (एहि ) चला आ ।

    भावार्थ

    भक्त भगवान् से क्या चाहता है, इसका मन्त्र में सुन्दर चित्रण है । १. प्रभु अपने उपासक को धन देने लगते हैं तो उपासक कहता है — प्रभो ! मैं धनकामी नहीं हूँ, मुझे इन सम्पदाओं की आवश्यकता नहीं है । ये तो इन्द्रियों के तेज को समाप्त करनेवाली हैं। मुझे नहीं चाहिए आपका धन । यह धन तो आप धनकामियों को दे दें । २. प्रभो ! मुझे पशुओं की भी आवश्यकता नहीं है । मैं पशुपति भी नहीं बनना चाहता । न मुझे गौओं की आवश्यकता है और न ही घोड़ों की । ये गौ और घोड़े तू पशुकामियों को दे दे । ३. प्रभो ! मुझ उपासक के प्रति तो बस आप ही आ जाओ। मैं तो आपको ही चाहता हूँ । आपके मिल जाने पर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा । अखिल सम्पदाएँ, सभी वैभव और ऐश्वर्य मुझे स्वयमेव प्राप्त हो जाएँगे, अतः मैं तो केवल आपको ही चाहता हूँ ।

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    विषय

    परमेश्वर के ध्यान ज्ञान से कर्म करने वाला पवित्र हृदय होता है।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) उत्तम धन के स्वामिन् ! हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यप्रद ! ( त्वं हि एहि ) तू आवश्य आ और ( चेरवे वसुत्तये ) सेवा, परिचर्या करने वाले परिजन को जीवनोपयोगी वेतनादि धन प्रदान करने के लिये ही ( भगं विद ) ऐश्वर्य प्राप्त कर। ( गविष्टये ) गौ देने के लिये और ( अश्वम् इष्टये ) अश्व देने के लिये ( उत् वावृषस्व ) सर्वोत्तम दानशील हो और अधिक उदार हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    भग-गौ-अश्व

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (चेरवे) = चरणशील के लिए पुरुषार्थी के लिए (हि) = प्राप्त होइए तथा (भगं विदाः) = ऐश्वर्य को प्राप्त कराइए जिससे (वसुत्तये) = [वसुदानाय ] वह धन का दान कर सके। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (गविष्टये) = ज्ञानेन्द्रियों की कामनावाले के लिए (उद्वावृषस्व) = खूब ही उसमें शक्ति का सेचन कीजिए तथा (अश्वमिष्टये) = कर्मेन्द्रियों की इच्छावाले करिये। इस शक्ति से सेचन के द्वारा उसकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को अपना कार्य करने में सशक्त बनाइए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - श्रमशील को प्रभु प्राप्त होते हैं और उसे दान देने के लिए धन प्राप्त कराते तथा उसे शक्तिसम्पन्न कर समर्थ ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंवाला करते हैं।

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