ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 6
पौ॒रो अश्व॑स्य पुरु॒कृद्गवा॑म॒स्युत्सो॑ देव हिर॒ण्यय॑: । नकि॒र्हि दानं॑ परि॒मर्धि॑ष॒त्त्वे यद्य॒द्यामि॒ तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठपौ॒रः । अश्व॑स्य । पु॒रु॒ऽकृत् । गवा॑म् । अ॒सि॒ । उत्सः॑ । दे॒व॒ । हि॒र॒ण्ययः॑ । नकिः॑ । हि । दान॑म् । प॒रि॒ऽमर्धि॑षत् । त्वे इति॑ । यत्ऽय॑त् । यामि॑ । तत् । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पौरो अश्वस्य पुरुकृद्गवामस्युत्सो देव हिरण्यय: । नकिर्हि दानं परिमर्धिषत्त्वे यद्यद्यामि तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठपौरः । अश्वस्य । पुरुऽकृत् । गवाम् । असि । उत्सः । देव । हिरण्ययः । नकिः । हि । दानम् । परिऽमर्धिषत् । त्वे इति । यत्ऽयत् । यामि । तत् । आ । भर ॥ ८.६१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You are the sole One omnipresent citizen of the universe, creator of all lands, cows, lights and knowledges of the world, maker of the motions, ambitions, advancements and achievements of nature and humanity, fountain head of universal joy, and golden refulgent generous lord supreme. No one can ever impair or obstruct your gifts to humanity. O lord, I pray, bring us whatever we ask for.
मराठी (1)
भावार्थ
वेद प्रेममय स्तोत्र पद्धती आहे. किती प्रेमाने, कोणत्या संबंधाने येथे प्रार्थना केली जाते यावर पाठकांनी विचार केला पाहिजे. हा भावार्थ आहे. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे देव=हे पूज्य इन्द्र ! त्वमस्य । अश्वस्य=संसारस्य पशोश्च । पौरः=पूरकः । पुनः । गवामिन्द्रियाणां पशूनां वा । पुरुकृत्=बहुकृदसि । त्वम् । उत्सः=प्रस्रवणम् । उत्सवे । वा । त्वं हिरण्ययः=हिरण्यप्रभृतिधनानां कर्तासि । हे इन्द्र ! त्वे=त्वयि वर्तमानं दानम् । नकिः=नहि कोऽपि । परिमर्धिषत्=निवारयितुं शक्नोति । यतोऽहम् । यद्+यद् । यामि=याचे । तत् तत् । आभर=आहर ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(देव) हे सर्वपूज्य इन्द्र ! तू इस (अश्वस्य) संसार या घोड़े का (पौरः) पूरक और दायक है तू (गवाम्+पुरुकृत्) इन्द्रियों और गौ आदि पशुओं को बहुधा बनानेवाला है, (उत्सः+असि) तू आनन्द का प्रस्रवण है, (हिरण्ययः) सुवर्णादिक धातुओं और सूर्यादिक लोकों का स्वामी है । हे परमात्मन् ! (त्वे+दानम्) आपके निकट जो जगत् को देने के लिये दातव्य पदार्थ हैं, (नकिः+परिमर्धिषत्) उनको कोई रोक नहीं सकता । आप चाहें जिसको देवें, इसलिये (यद्+यद्+यामि) जो-जो मैं माँगता हूँ (तत्+तत्+आभर) सो-सो मुझको दे ॥६ ॥
भावार्थ
वेद प्रेममय स्तोत्रपद्धति है । किस प्रेम से किस सम्बन्ध से यहाँ प्रार्थना की जाती है, उस पर पाठकों को विचारना चाहिये । इसका भावार्थ स्पष्ट है ॥६ ॥
विषय
परमेश्वर के ध्यान ज्ञान से कर्म करने वाला पवित्र हृदय होता है।
भावार्थ
हे ( देव ) दानशील ! हे तेजस्विन् ! हे व्यवहारज्ञ ! तू ( पौर: ) बहुतों का स्वामी, ( अश्वस्य गवाम् पुरुकृत् ) अश्वों और गौ आदि सम्पदा को बहुत संख्या में करने में समर्थ ( असि ) है। तू ( हिरण्ययः उत्सः ) सुवर्ण का उद्गमस्थान, निकास वा खान के समान है। ( त्वे ) तेरे ( दानं ) दिये ऐश्वर्य का ( नकिः हि परि मर्धिषत् ) कोई भी नाश नहीं कर सकता। मैं ( यत् यत् यामि) जिस २ पदार्थ की भी याचना करूं तू ( तत् आभर ) वह २ पदार्थ मुझे प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पौर:
पदार्थ
[१] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो! (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली कर्मेन्द्रियों के आप (पौरः) = पूरयिता (असि) = हैं, (गवाम्) = अर्थों की गमक ज्ञानेन्द्रियों के आप (पुरुकृत्) = पालन व पूरण करनेवाले हैं। आप हमारे लिए (हिरण्ययः उत्सः) = ज्योतिर्मय स्रोत के समान हैं। [२] (त्वे) = आपमें (दानं) = हमारे लिए देय धन (नकिः हि) = नहीं ही (परिमधिषत्) = हिंसित होता, अर्थात् आप सदा हमारे लिए इन धनों को प्राप्त कराते हैं । (यद् यद् यामि) = जो-जो मैं आपसे माँगता हूँ (तद्) = उसे (आभर) = हमारे लिए प्राप्त कराइए।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियों के पूरण को करते हैं-हमारे लिए ज्ञान के स्रोत हैं। जो कुछ हम माँगते हैं, वे सदा देते हैं।
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