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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अप्रा॑मिसत्य मघव॒न्तथेद॑स॒दिन्द्र॒ क्रत्वा॒ यथा॒ वश॑: । स॒नेम॒ वाजं॒ तव॑ शिप्रि॒न्नव॑सा म॒क्षू चि॒द्यन्तो॑ अद्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप्रा॑मिऽसत्य । म॒घ॒ऽव॒न् । तथा॑ । इत् । अ॒स॒त् । इन्द्र॑ । क्रत्वा॑ । यथा॑ । वशः॑ । स॒नेम॑ । वाज॑म् । तव॑ । शि॒प्रि॒न् । अव॑सा । म॒क्षु । चि॒त् । यन्तः॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्रामिसत्य मघवन्तथेदसदिन्द्र क्रत्वा यथा वश: । सनेम वाजं तव शिप्रिन्नवसा मक्षू चिद्यन्तो अद्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्रामिऽसत्य । मघऽवन् । तथा । इत् । असत् । इन्द्र । क्रत्वा । यथा । वशः । सनेम । वाजम् । तव । शिप्रिन् । अवसा । मक्षु । चित् । यन्तः । अद्रिऽवः ॥ ८.६१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of might and majesty, unchangeable truth itself, imperishable, as you wish by holy thought and will, so does everything happen. Pray bless us to win the victory in our battles for life, O lord of splendid vizor, under your protection without delay while we move on, O lord of clouds and mountains.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याद्वारे ईश्वराला धन्यवाद दिले जातात व प्रार्थना केली जाते की, जे लोक ईश्वराच्या कृपेने सर्व पदार्थांनी संपन्न आहेत त्यांनी ईश्वराच्या प्राप्तीसाठी प्रयत्न करावेत. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अप्रामिसत्य ! “अप्रामि=अपरिणामि सत्यं यस्य । हे अपरिवर्तनीय सत्य हे सत्य । ” हे दृढतम ! हे मघवन्=धनवन् ! हे इन्द्र=परमेश्वर ! तथा+इद्+असत्=तथैव भवति । यथा त्वम् । क्रत्वा=विज्ञानकर्मणा । वशः=कामयेः । हे शिप्रिन्= शिष्टजनमनोरथप्रपूरक ! हे अद्रिवः=महादण्डधर ! वयम् । तव+अवसा=रक्षणेन । मक्षु=शीघ्रमेव । यन्तः चित्=संसारे अभ्युदयं गच्छन्तः सन्तः । वाजं=विज्ञानं च । सनेम=संभजेम ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अप्रामिसत्य) हे अपरिणामि सत्य, हे अपरिवर्तनीय सत्य, हे सत्य में दृढ़तम, हे सत्यसन्ध (मघवन्) हे धनवन् ! (इन्द्र) हे इन्द्र परमेश्वर ! (तथा) वैसा (इत्) ही (असत्) होता है (यथा) जैसा (क्रत्वा) विज्ञानरूप कर्म से (वशः) तू चाहता है । हे भगवन् (शिप्रिन्) हे शिष्टजनमनोरथप्रपूरक (अद्रिवः) हे महादण्डधर देव ! (तव+अवसा) तेरी रक्षा के कारण (मक्षु) शीघ्र ही (यन्तः+चित्) सांसारिक अभ्युदय और परमोन्नति को प्राप्त करते हुए हम उपासक सम्प्रति आपकी कृपा से (वाजम्) परम विज्ञान और मोक्ष सुख (सनेम) पावें ॥४ ॥

    भावार्थ

    इसके द्वारा ईश्वर को धन्यवाद और प्रार्थना की जाती है । जो जन ईश्वर की कृपा से सांसारिक सब पदार्थों से सम्पन्न हैं, वे ईश्वर की प्राप्ति के लिये यत्न किया करें ॥४ ॥

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    विषय

    राजा के प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) यथार्थदर्शिन् ! तू ( क्रत्वा ) अपनी बुद्धि और कर्म के सामर्थ्य से ( यथा वशः ) जिस प्रकार भी चाहता है हे ( मघवन् ) पूजित विभूतिसम्पन्न ! हे ( अप्रामि-सत्य ) सत्यरूप महा व्रत का नाश न करने हारे ! ( तथा इत् असत् ) वैसा ही होता है। हे ( शिप्रिन् ) मुकुटधारिन् ! सत्यपालक ! हे ( अद्रिवः ) वलशालिन् ! हम लोग ( मक्षु चित् यन्तः ) बहुत शीघ्रता से आगे बढ़ते हुए ( अवसा ) ज्ञान और रक्षा, बल से ( तव वाजं ) तेरा ज्ञान, बल, ऐश्वर्य ( सनेम ) प्राप्त करें, वा तुझे अन्नादि प्रदान करें।

    टिप्पणी

    सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। योग० सू० २। ३६। अमोघा ह्यस्थ वाग् भवति। व्यासभाष्यम्॥ तदस्य भगवतो वाचो भवति इति वाचस्पतिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अप्रामिसत्य- मघवा ' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अप्रामिसत्य) = अहिंसित (सत्य) = सत्यस्वरूप, (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन्, (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! तथा (इत् असत्) = वैसा ही होता है (यथा) = जैसा आप (क्रत्वा) = शक्ति व प्रज्ञान से (वशः) = चाहते हैं । [२] हे (शिप्रिन्) = हमें उत्तम हनू व नासिका को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (तव अवसा) = आपके रक्षण के द्वारा (वाजं सनेम) = हम शक्ति व ऐश्वर्य को प्राप्त करें। जबड़ों की उत्तमता भोजन के ठीक चबाने के द्वारा शक्तिवर्धन का कारण बनती है। नासिका की उत्तमता प्राणायाम द्वारा ज्ञान आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराती है। हे (अद्रिवः) = वज्रहस्त प्रभो ! हम (मक्षू) = शीघ्र (चित्) = ही (यन्तः) = शत्रुओं के प्रति जानेवाले हों उन पर आक्रमण करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - यह संसार प्रभु की शक्ति व प्रज्ञान से ठीक रूप में चल रहा है। सत्यस्वरूप प्रभु के रक्षण में हम ज्ञान के ऐश्वर्य व शक्ति को प्राप्त करें- शत्रुओं को आक्रान्त कर पाएँ ।

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