ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 7
पव॑मानास॒ इन्द॑वस्ति॒रः प॒वित्र॑मा॒शव॑: । इन्द्रं॒ यामे॑भिराशत ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मानासः । इन्द॑वः । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । आ॒शवः॑ । इन्द्र॑म् । यामे॑भिः । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानास इन्दवस्तिरः पवित्रमाशव: । इन्द्रं यामेभिराशत ॥
स्वर रहित पद पाठपवमानासः । इन्दवः । तिरः । पवित्रम् । आशवः । इन्द्रम् । यामेभिः । आशत ॥ ९.६७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पवमानासः) पावकः (इन्दवः) सर्वैश्वर्यसम्पन्नः (आशवः) व्यापकः परमेश्वरः (यामेभिः) स्वकीयानन्तशक्तिभिः (तिरः) अज्ञानानि तिरस्कृत्य (पवित्रम्) पूतं (इन्द्रम्) कर्मयोगिनं (आशत) प्राप्नोति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पवमानासः) पवित्र करनेवाला तथा (इन्दवः) सर्वैश्वर्यसंपन्न और (आशवः) व्यापक परमात्मा (यामेभिः) अपनी अनन्त शक्तियों से (तिरः) अज्ञानों का तिरस्कार करके (पवित्रम्) पवित्र (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (आशत) प्राप्त होता है ॥७॥
भावार्थ
जो पुरुष ज्ञानयोग वा कर्मयोग द्वारा अपने आपको ईश्वर के ज्ञान का पात्र बनाते हैं, उन्हें परमात्मा अपने अनन्त गुणों से प्राप्त होता है। अर्थात् वह परमात्मा के सच्चिदादि अनेक गुणों का लाभ करता है ॥७॥
विषय
पवमानास इन्दवः
पदार्थ
[१] (पवमानास:) = पवित्र करनेवाले ये (इन्दवः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोमकण (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले व्यक्ति को (तिरः) = तिरोहित रूप में (आशवः) = व्याप्त करनेवाले होते हैं । इस पुरुष के रुधिर में ये इस प्रकार व्याप्त होते हैं जैसे कि 'तिलेषु तैलं दध्नीव सर्पिः' । [२] ये सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (यामेभिः) = गतियों के द्वारा आशत प्राप्त होते हैं। सोमकणों को शरीर में ही व्याप्त रखने का सर्वोत्तम साधन यही है कि हम सदा क्रियाशील बने रहें ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकण हमें पवित्र व शक्तिशाली बनाते हैं । क्रियाशीलता द्वारा हम इन्हें अपने में ही व्याप्त करें।
विषय
उनका कण्टक शोधन कार्य। ऐश्वर्य पद प्राप्ति।
भावार्थ
(पवमानासः) वेग से प्रयाण करते हुए, (इन्दवः) शत्रु को सन्तप्त करने में कुशल, (आशवः) वेगवान्, वीर जन (यामेभिः) अपने प्रयाणों द्वारा, अपने सन्मार्गों द्वारा, अपने उत्तम नियम व्यवस्थाओं द्वारा, (पवित्रम् तिरः) कण्टक शोधन के कार्य को पूर्ण करके (इन्द्रं) ऐश्वर्य पद को (आशत) प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pure and purifying, instant and vibrant, gifts of Soma, by their own potential of divinity, move and bless the pure heart and soul of the devotee.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष ज्ञानयोग किंवा कर्मयोगाद्वारे स्वत:ला ईश्वराच्या ज्ञानाचे पात्र बनवितात त्यांना परमात्मा आपल्या अनंत गुणांनी प्राप्त होतो. अर्थात् त्याला परमात्म्याच्या सच्चिदानंद इत्यादी अनेक गुणांचा लाभ होतो. ॥७॥
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