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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 24
    ऋषिः - त्रिशोक ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    4

    बृ॒हन्निदि॒ध्मऽए॑षां॒ भूरि॑ श॒स्तं पृ॒थुः स्वरुः॑।येषा॒मिन्द्रो॒ युवा॒ सखा॑॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हन्। इत्। इ॒ध्मः। ए॒षा॒म्। भूरि॑। श॒स्तम्। पृ॒थुः। स्वरुः॑ ॥ येषा॑म्। इन्द्रः॑। युवा॑। सखा॑ ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहन्निदिध्मऽएषाम्भूरि शस्तम्पृथुः स्वरुः । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बृहन्। इत्। इध्मः। एषाम्। भूरि। शस्तम्। पृथुः। स्वरुः॥ येषाम्। इन्द्रः। युवा। सखा॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 24
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यः परमेश्वरमेव मित्रं कुर्यादित्याह॥

    अन्वयः

    येषामिध्मः पृथुः स्वरुर्युवा बृहन्निन्द्रः सखाऽस्त्येषामिद् भूरि शस्तं भवति॥२४॥

    पदार्थः

    (बृहन्) महान् (इत्) एव (इध्मः) प्रदीप्तः (एषाम्) मनुष्याणाम् (भूरि) बहु (शस्तम्) स्तुत्यं कर्म (पृथुः) विस्तीर्णः (स्वरुः) प्रतापकः (येषाम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् परमात्मा (युवा) प्राप्तयौवनः (सखा) मित्रम्॥२४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्योत्तमः परमेश्वरः सखा भवेत्, स यथाऽस्मिन् ब्रह्माण्डे सूर्य्यः प्रतापयुक्तोऽस्ति, तथा प्रतापयुक्तः स्यात्॥२४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य परमेश्वर को ही मित्र करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (येषाम्) जिनका (इध्मः) तेजस्वी (पृथुः) विस्तारयुक्त (स्वरुः) प्रतापी (युवा) ज्वान (बृहन्) महान् (इन्द्रः) उत्तम ऐश्वर्यवाला परमात्मा (सखा) मित्र है, (एषाम्) उन (इत्) ही का (भूरि) बहुत (शस्तम्) स्तुति के योग्य कर्म होता है॥२४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसका उत्तम परमेश्वर मित्र होवे, वह जैसे इस ब्रह्माण्ड में सूर्य्य प्रतापवाला है, वैसे प्रतापयुक्त हो॥२४॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( येषाम् ) = जिन उत्तम पुरुषों का  ( इध्मः ) = महातेजस्वी  ( पृथुः ) = विस्तार युक्त  ( स्वरु: ) = सूर्य के समान प्रतापी  ( युवा ) =  नित्य युवा एकरस  ( बृहत् ) = सबसे बड़ा  ( इन्द्रः ) = परम ऐश्वर्यवाला  ऐश्वर्यवाला   ( सखा ) = मित्र है  ( एषाम् ) = उन  ( इत् ) = ही का  ( भूरि ) = बहुत  ( शस्तम् ) = स्तुति योग्य कर्म होता है। 

    भावार्थ

    भावार्थ = जिन महानुभाव भद्र पुरुषों ने, विषय भोगों में न फँसकर, महातेजस्वी, सर्वव्यापक सूर्यवत् प्रतापी, एकरस, महाबली, सबसे बड़े परमेश्वर् को, अपना मित्र बना लिया है, उन्हीं का जीवन सफल है। सांसारिक भोगों से विरक्त, परमेश्वर के ध्यान में और उसके ज्ञान में आसक्त, महापुरुषों के सत्संग से ही, मुमुक्षु पुरुषों का कल्याण हो सकता है, न कि विषय -  लम्पट ईश्वर विमुखों के कुसंग से।

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    विषय

    नायक सेनापति को शत्रुनाश के नाना प्रकार के उपदेश ।

    भावार्थ

    ( येषाम् ) जिनका (सखा) मित्र (बृहन् ) महान् (इध्म) तेजस्वी, (पृथुः ) विस्तीर्ण राज्य वाला ( स्वरुः) शत्रुओं का तापक, सूर्य के समान तेजस्वी (युवा) युवा पुरुष के समान सदा बलवान् उत्साही हो, ( एषाम् ) उन प्रजाओं का (भूरि) बहुत (शस्तम् ) उत्तम, प्रशंसा योग्य फल होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः । इन्द्रः । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    जिनके प्रभु मित्र हैं

    पदार्थ

    १. (येषाम्) = जिनके युवा दुरितों से दूर करके [यु-अमिश्रण] भद्रों से सम्पृक्त करानेवाले [यु-मिश्रण] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (सखा) = मित्र होते हैं (एषाम्) = इनकी (इध्मः) = ज्ञानदीप्ति (इत्) = निश्चय से (बृहत्) = बहुत अधिक बढ़ी हुई होती है। प्रभु ज्ञान के पुञ्ज हैं, प्रभु का मित्र भी इस ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठता है। प्रभु अग्नि हैं, उनका उपासक जीव भी अग्नितुल्य होकर दीप्त हो उठता है। २. इन प्रभु सखाओं का (भूरिशस्तम्) = कर्म अत्यधिक प्रशस्त होता है। 'भृ= धारणपोषण', इनके कर्म सदा धारण- पोषणात्मक होते हैं। निर्माण के कार्यों में लगे रहने से इनकी सर्वत्र प्रशंसा होती है। ये हित करते हैं, लोक इनका गुणगान करता है। ३. इस प्रकार सदा लोकहित में लगे हुए इन लोगों का (स्वरुः) = त्याग [Sacrifice] (पृथुः) = अत्यन्त विशाल होता है। ये विश्वरूप होने से सारे विश्व के लिए त्याग करते हैं । ४. इस प्रकार ज्ञान से इसका मस्तिष्क उज्ज्वल हुआ है, कर्मों से हाथ पवित्र हो उठे हैं और त्याग ने इसके हृदय को चमका दिया है, वहाँ स्वार्थ का मालिन्य नहीं है, अतः मस्तिष्क, हाथ व हृदय- तीनों को दीप्त करके यह 'त्रिशोक' इस अन्वर्थ नामवाला हो गया है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान से हमारा मस्तिष्क दीप्त हो, पोषक कर्म हमारे हाथों को प्रशस्त करें और त्याग का भाव हमारे हृदयों को निष्कलंक बनाये ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वर ज्याचा उत्तम मित्र असेल तो जणू या ब्रह्मांडातील तेजस्वी सूर्याप्रमाणे असतो. म्हणून सर्वांनी तसे बनावे.

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    विषय

    माणसाने केवळ परमेश्‍वरालाच मित्र करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (परमात्मा) (इध्म्) तेजस्वी (पृथुः) अति विशाल वा अनंत आहे, (स्वरुः) प्रतापी असून (युवा ( एकरूप-बलवान, त्रिकालाबाधित म्हणून सदा युवा) असा बृहत्) महान (इन्द्रः) ऐश्‍वर्यवान आहे, असा परमात्मा (येषाम्) ज्या लोकांचा (सखा) मित्र आहे (वा ज्यांनी त्याला मित्र करून त्यावर विश्‍वास ठेवला आहे) (एषाम्) त्या लोकां (इत्) चा तो ईश्‍वर (भूरि) अती (शस्तम्) प्रशंसनीय वा स्तवनीय होतो. (ते श्रद्धावान लोक त्याची स्तुती व उपासना करतात) ॥24॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. तो श्रेष्ठ परमेश्‍वर ज्यांचा मित्र आहे, तो मनुष्य, सूर्य जसा ब्रह्मांडात प्रतापवान आहे, तसा तो मनुष्य प्रतापवान होतो (पराक्रमी व तेजस्वी होतो) ॥24॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    They alone perform laudable deeds, whose friend is God, Brilliant, Omnipresent, Majestic, ever young, Exalted, and Supreme.

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    Meaning

    Great is the fame and excellence of those whose friend is Indra, boundless, blazing, expansive, glorious and unaging lord.

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    Translation

    Ample is their fuel to burn, many their hymns to sing, and large their swords, in case their close friend is the ever-young resplendent Lord. (1)

    Notes

    Brhan it idhma, verily ample is their fuel. Bhūri sastam, great is their fame; or many are their praise-songs. Svaruḥ, खड्ग:, the sword.

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    बंगाली (2)

    विषय

    মনুষ্যঃ পরমেশ্বরমেব মিত্রং কুর্য়াদিত্যাহ ॥
    মনুষ্য পরমেশ্বরকেই মিত্র করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(যেষাম্) যাহার (ইধমঃ) তেজস্বী (পৃথুঃ) বিস্তারযুক্ত (স্বরুঃ) প্রতাপী (য়ুবা) যুবক (বৃহন্) মহান্ (ইন্দ্রঃ) উত্তম ঐশ্বর্য্যশালী পরমাত্মা (সখা) মিত্র (এষাম্) তাহার (ইৎ)(ভূরি) বহু (শস্তম্) স্তুতির যোগ্য কর্ম হয় ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । উত্তম পরমেশ্বর যাহার মিত্র হইবে সে যেমন এই ব্রহ্মান্ডে সূর্য্য প্রতাপশালী সেইরূপ প্রতাপযুক্ত হয় ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বৃ॒হন্নিদি॒ধ্মऽএ॑ষাং॒ ভূরি॑ শ॒স্তং পৃ॒থুঃ স্বর॑ুঃ ।
    য়েষা॒মিন্দ্রো॒ য়ুবা॒ সখা॑ ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বৃহন্নিদিত্যস্য ত্রিশোক ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বর ॥

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    পদার্থ

     

    বৃহন্নিদিধ্ম এষাং ভূরি শস্তং পৃথুঃ স্বরু ।

    যেষামিন্দ্রো যুবা সখা।।১৮।।

    (যজু ৩৩।২৪)

    পদার্থঃ (যেষাম্) যেই উত্তম পুরুষের, (ইধ্মঃ) মহাতেজস্বী, (পৃথুঃ) বিস্তার যুক্ত (স্বরুঃ) সূর্যের সমান প্রতাপী, (যুবা) নিত্য যুবা, এক রস (বৃহৎ) সবার থেকে মহান, (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যসম্পন্ন পরমেশ্বর! (সখা) মিত্র, (এষাম্) তাঁর (ইৎ)(ভূরি) অনেক (শস্তম্) স্তুতির যোগ্য কর্ম হয়। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে মহানুভব ভদ্র ব্যক্তি বিষয় ভোগে লিপ্ত না হয়ে মহাতেজস্বী, সর্বব্যাপক, সূর্যবৎ প্রতাপী, একরস, সর্বশক্তিমান, সবার থেকে মহান পরমেশ্বরকে নিজের মিত্র করেন; তাঁরই জীবন সফল। সাংসারিক ভোগ থেকে বিমুখ হয়ে পরমেশ্বরের ধ্যানে এবং তাঁর জ্ঞানে আসক্ত, মহাপুরুষদের সৎসঙ্গ দ্বারাই মুমুক্ষু ব্যক্তিদের কল্যাণ হতে পারে। বিষয়াসক্তি, লাম্পট্য ও ঈশ্বর বিমুখ কুসঙ্গ দ্বারা নয়।।১৮।।

     

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