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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 36
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    2

    त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य्य।विश्व॒मा भा॑सि रोच॒नम्॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒रणिः॑। वि॒श्वद॑र्शत॒ इति॑ वि॒श्वऽद॑र्शतः। ज्यो॒ति॒ष्कृत्। ज्यो॒तिः॒कृदिति॑ ज्योतिः॒ऽकृत्। अ॒सि॒। सू॒र्य्य॒ ॥ विश्व॑म्। आ। भा॒सि॒। रो॒च॒नम् ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमा भासि रोचनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तरणिः। विश्वदर्शत इति विश्वऽदर्शतः। ज्योतिष्कृत्। ज्योतिःकृदिति ज्योतिःऽकृत्। असि। सूर्य्य॥ विश्वम्। आ। भासि। रोचनम्॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 36
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजपुरुषाः कीदृशाः स्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे सूर्य! त्वं यथा तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृत् सविता रोचनं विश्वं प्रकाशयति तथा त्वमसि यतो न्यायविनयेन राज्यमाभासि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि॥३६॥

    पदार्थः

    (तरणिः) तारकः (विश्वदर्शतः) विश्वेन द्रष्टव्यः (ज्योतिष्कृत्) यो ज्योतींषि करोति सः (असि) (सूर्य्य) सूर्य्यवद्वर्तमान राजन! (विश्वम्) समग्रं राज्यम् (आ) (भासि) प्रकाशयसि (रोचनम्) रुचिकरम्॥३६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजपुरुषा विद्याप्रकाशकाः स्युस्तर्हि सर्वानानन्दयितुं शक्नुयुः॥३६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजपुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सूर्य) सूर्य के तुल्य वर्त्तमान तेजस्विन्! जैसे (तरणिः) अन्धकार से पार करनेवाला (विश्वदर्शतः) सबको देखने योग्य (ज्योतिष्कृत्) अग्नि, विद्युत्, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, तारे आदि को प्रकाशित करनेवाले सूर्यलोक (रोचनम्) रुचिकारक (विश्वम्) समग्र राज्य को प्रकाशित करता है, वैसे आप (असि) हैं, जिस कारण न्याय और विनय से राज्य को (आ, भासि) अच्छे प्रकार प्रकाशित करते हो, इसलिये सत्कार पाने योग्य हो॥३६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष विद्या के प्रकाशक होवें तो सबको आनन्द देने को समर्थ होवें॥३६॥

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    विषय

    उसका स्वरूप, उसका महान् सामर्थ्य ।

    भावार्थ

    तू (तरणि:) सब संकटों से पार उतारने वाला (विश्वदर्शतः) सबसे दर्शन करने योग्य, (ज्योतिः कृत्) समस्त सूर्यादि तेजस्वी लोकों को बनाने वाला है । हे (सूर्य) समस्त जगत् के प्रेरक और सञ्चालक ! तु ( रोचनम् ) तेजस्वी, दीप्तिमान् (विश्वम् ) समस्त संसार को (आभासि) प्रकाशित करता है । (२) हे सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष प्रजाजनों को पार लगाने वाला होने से तू 'तरणि' है सबसे दर्शनीय, ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकाश का चलाने वाला है, समस्त रुचिकर पदार्थों का प्रकट करने वाला है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः । सूर्यः । पिपीलिकामध्या निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    प्रभु का आदेश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में 'वृत्रहन्' व 'सूर्य' से प्रभु कहते हैं कि ब्रह्माण्ड तेरे वश में हो गया, दूसरे शब्दों में तूने सब कुछ पा लिया, तूने अपने जीवन की साधना कर ली, परन्तु इतने से तू अपने को कृतकृत्य न समझ लेना। अपने आप सब कुछ पाकर अब तूने - [क] (तरणि:) = नाव बनना है। नाव स्वयं तो पानी में डूबती ही नहीं, औरों को भी डूबने से बचाती है, तूने भी इसी प्रकार औरों को तारना है। अपने आप तर जाने में ही साफल्य नहीं है। [ख] (विश्वदर्शत:) = तूने सबको देखनेवाला बनना है, केवल अपने को नहीं। मोक्ष भी केवल अपने लिए नहीं चाहना। [ग] सभी को मोक्षमार्ग पर ले जाने के विचार से हे सूर्य-स्वयं ज्ञानसूर्य के समान चमकनेवाले ! तू (ज्योतिष्कृत् असि) = ज्योति को फैलानेवाला है। तू ब्रह्माण्ड में सर्वत्र ज्ञान के प्रकाश को विकीर्ण करता है [घ] इस ज्ञान के विकिरण से तू (विश्वम् आभासि) = सारे संसार को सब ओर से दीप्त करता है। इस ज्ञान - विकिरण की क्रिया में तू (रोचनम्) = बड़ी रोचकता से कार्य करता है। तू ज्ञान के प्रचार में मधुर, श्लक्षण वाणी का प्रयोग करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम तरणि बनें, नाव वही ठीक जो स्वयं नहीं डूबती और परिणामत: औरों को तराने का कारण बनती है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजपुरुष विद्येचा प्रसार करतात ते सर्वांना आनंद देऊ शकतात.

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    विषय

    आता राजपुरुष कसे असावेत, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (सूर्य) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी राजपुरुष, ज्याप्रमाणे (तरणिः) अंधकाराला दूर लोटणारा (विश्‍वदर्शतः) सर्वांना पाहण्याची शक्ती देणारा (ज्योतिष्कृत्) अग्नी, विद्युत, चंद्र, नक्षत्र, ग्रह, तारका या सर्वांना प्रकाश देणारा सूर्य (रोचनम्) प्रभासित होतो आणि (विश्‍वम्) विश्‍वाला प्रकाशित करतो, तसे राजपुरुष, आपण संपूर्ण राज्याला प्रकाशित करणारे सर्वांना प्रेरणा देणारे (असि) आहात. आपण जसे न्याय आणि विनम्रतेने राज्याचे (आ, भासि) संचालन करता, त्यामुळे आपण सर्व प्रजाजनांच्या सत्काराला पात्र आहात. ॥36॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे राजपुरुष विद्या-प्रसारक असतात, ते सर्वांना आनंदित करण्यास समर्थ असतात. ॥36॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king lustrous like the sun, that dispels darkness, is visible to all, produces light and illumines the whole universe, thou illuminest thy state with justice and humility, and art hence worthy of veneration.

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    Meaning

    Sun, benevolent energy of the world, universal eye, you are the light, creator of light and knowledge. And you illuminate the beautiful world of existence.

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    Translation

    O self-radiant God, you are the supreme light that outstrips all in speed, and it is your spiritual radiance that awakens each one of us, and shines through the entire firmament. (1)

    Notes

    Taranih, one that crosses the firmament; also, that which outstrips others in speed. Viśvam ābhāsi rocanam, you illuminate this beautiful world all around.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রাজপুরুষাঃ কীদৃশাঃ স্যুরিত্যাহ ॥
    এখন রাজপুরুষ কেমন হইবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (সূর্য়) সূর্য্যতুল্য বর্ত্তমান তেজস্বিন্! যেমন (তরণিঃ) অন্ধকার হইতে উত্তীর্ণকারী (বিশ্বদর্শতঃ) সকলের দর্শনীয় (জ্যোতিষ্কৃৎ) অগ্নি, বিদ্যুৎ, চন্দ্রমা, নক্ষত্র, গ্রহ, তারাদির প্রকাশক সূর্য্যলোক (রোচনম্) রুচিকারক (বিশ্বম্) সমগ্র রাজ্যকে প্রকাশিত করে সেইরূপ আপনি (অসি) আছেন যে কারণে ন্যায় ও বিনয় দ্বারা রাজ্যকে (আ, ভাসি) উত্তম প্রকার প্রকাশিত করেন এইজন্য সৎকার পাওয়ার যোগ্য ॥ ৩৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে রাজপুরুষ বিদ্যার প্রকাশক হইবে, সে সকলকে আনন্দ প্রদান করিতে সক্ষম হইবে ॥ ৩৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত॒রণি॑র্বি॒শ্বদ॑র্শতো জ্যোতি॒ষ্কৃদ॑সি সূর্য়্য ।
    বিশ্ব॒মা ভা॑সি রোচ॒নম্ ॥ ৩৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তরণিরিত্যস্য প্রস্কণ্ব ঋষিঃ । সূর্য়ো দেবতা । নিচৃদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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